December 6, 2023

Chandra Shekhar Azad Jayanti [Hindi] | क्रांतिकारी चंद्रशेखर आज़ाद की 117वीं जयंती पर जानिए शहीद चंद्रशेखर आज़ाद के विलक्षण जीवन के बारे में

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Updated on 22 July 2023 IST | Chandra Shekhar Azad Jayanti | “मैं आजाद हूँ, आजाद रहूँगा और आजाद ही मरूंगा” यह नारा था भारत की आजादी के लिए अपनी जान की कुर्बानी देने वाले देश के महान क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी चंद्रशेखर आजाद का। चंद्रशेखर आजाद का पूरा नाम चंद्र शेखर तिवारी तथा उपनाम “पंडित जी” था, चन्द्रशेखर आजाद का जन्म भाबरा गाँव (अब चन्द्रशेखर आजादनगर) (वर्तमान अलीराजपुर जिला) में एक ब्राह्मण परिवार में 23 जुलाई सन् 1906 को हुआ था। उनके पूर्वज ग्राम बदरका वर्तमान उन्नाव जिले (बैसवारा) से थे। चंद्रशेखर आजाद हमेशा आजाद ही रहे, उन्होंने सुखदेव राजगुरु और भगत सिंह को फांसी ना हो इसके लिए भी काफी प्रयत्न किए, किंतु वीरभद्र की मुखबिरी के कारण अंग्रेजों द्वारा 27 फ़रवरी, 1931 के दिन इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में हुई भीषण गोलीबारी के दौरान देश के सबसे बड़े क्रांतिकारी ने अपने देश के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी।

Table of Contents

Chandra Shekhar Azad Jayanti | चंद्रशेखर आजाद का जीवन परिचय

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महानायक एवं लोकप्रिय स्वतंत्रता सेनानी चंद्रशेखर आजाद का जन्म 23 जुलाई, 1906 को मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले के भाबरा नामक स्थान पर हुआ। आजाद का जन्मस्थान भाबरा अब ‘आजादनगर’ के रूप में जाना जाता है। उनके पिता का नाम पंडित सीताराम तिवारी एवं माता का नाम जगदानी देवी था। उनके पूर्वज ग्राम बदरका वर्तमान उन्नाव जिला (बैसवारा) से थे। आजाद के पिता पण्डित सीताराम तिवारी अकाल के समय अपने पैतृक निवास बदरका को छोड़कर पहले कुछ दिनों मध्य प्रदेश अलीराजपुर रियासत में नौकरी करते रहे फिर जाकर भाबरा गाँव में बस गये। यहीं बालक चन्द्रशेखर का बचपन बीता। आजाद का प्रारम्भिक जीवन आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में स्थित भाबरा गाँव में बीता अतएव बचपन में आजाद ने भील बालकों के साथ खूब धनुष-बाण चलाये। 

इस प्रकार उन्होंने निशानेबाजी बचपन में ही सीख ली थी। चंद्रशेखर आजाद की माता जगरानी देवी उन्हें संस्कृत का विद्वान बनाना चाहती थीं इसीलिए उन्हें संस्कृत सीखने लिए काशी विद्यापीठ, बनारस भेजा गया। दिसंबर 1921 में जब गांधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन की शुरूआत की गई उस समय मात्र चौदह वर्ष की उम्र में चंद्रशेखर आजाद ने इस आंदोलन में भाग लिया जिसके परिणामस्वरूप उन्हें गिरफ्तार कर मजिस्ट्रेट के समक्ष उपस्थित किया गया।  जब चंद्रशेखर से उनका नाम पूछा गया तो उन्होंने अपना नाम आजाद और पिता का नाम स्वतंत्रता बताया। यहीं से चंद्रशेखर सीताराम तिवारी का नाम चंद्रशेखर आजाद पड़ गया था। चंद्रशेखर को पंद्रह दिनों के कड़े कारावास की सजा प्रदान की गई।

अंग्रेज चंद्रशेखर को जीवित नहीं पकड़ सके

चंद्रशेखर आजाद मन्मथनाथ गुप्त और प्रणवेश चटर्जी के सम्पर्क में आये और क्रान्तिकारी दल के सदस्य बन गये। क्रान्तिकारियों का वह दल “हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ” के नाम से जाना जाता था। देश को आजाद कराने के लिए वे विभिन्न दलों में तथा विभिन्न योजनाओं में शामिल रहे। चंद्रशेखर आजाद को पकड़ने का सपना मात्र सपना रह गया चंद्रशेखर आजाद को कभी भी कोई नहीं पकड़ पाया।

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वर्ष 1931 में अल्फ्रेड पार्क में क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी चन्द्र शेखर आज़ाद को अंग्रेज़ों के साथ हुई एक भयंकर गोलीबारी में वीरगति प्राप्त हुई। आज़ाद की मृत्यु 27 फरवरी 1931 में 24 साल की उम्र में हुई। उस भीषण गोलीबारी में उन्होंने अपने अचूक निशाने से कई अंग्रेजों का शिकार किया। बाद में जब चंद्रशेखर आजाद की पिस्तौल में एक गोली रह गई तो उन्होंने स्वयं को गोली मारकर वीरगति प्राप्त की, ताकि कोई भी अंग्रेज उन्हें पकड़कर स्वतंत्रता सेनानियों की योजनाओं का भेद ना जान सके और अंग्रेजों का उन्हें जीवित पकड़ने का सपना मात्र सपना बनकर ही रह गया।

Chandra Shekhar Azad Jayanti | चंद्रशेखर आज़ाद की क्रांतिकारी गतिविधियाँ

जलियांवाला बाग हत्याकांड (1919) ने चंद्रशेखर आज़ाद को बहुत निराश किया। महात्मा गांधी ने 1921 में असहयोग आंदोलन शुरू किया और चंद्रशेखर आजाद ने इसमें सक्रिय रूप से भाग लिया। लेकिन चौरी-चौरा की घटना के कारण, गांधी जी ने फरवरी 1922 में असहयोग आंदोलन को स्थगित कर दिया, जो आज़ाद की राष्ट्रवादी भावनाओं के लिए एक झटका था। फिर उन्होंने फैसला किया कि उनके वांछित परिणाम के लिए पूरी तरह से आक्रामक कार्रवाई अधिक उपयुक्त थी। वह हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन नामक एक कट्टरपंथी संघ में शामिल हो गए और उन्होंने काकोरी ट्रेन डकैती (1925) और एक ब्रिटिश पुलिस अधिकारी की हत्या (1928) सहित कई हिंसक गतिविधियों में भाग लिया।

चंद्रशेखर आजाद ने भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु को बचाने का किया पूरा प्रयास

चन्द्रशेखर आज़ाद ने मृत्यु दण्ड पाए तीनों प्रमुख क्रान्तिकारियों भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की सज़ा कम कराने का काफी प्रयास किया। वे उत्तर प्रदेश की हरदोई जेल में जाकर गणेशशंकर विद्यार्थी से मिले। विद्यार्थी से परामर्श कर वे इलाहाबाद गए और 20 फरवरी को जवाहरलाल नेहरू से उनके निवास आनन्द भवन में भेंट की। आजाद ने पण्डित नेहरू से यह आग्रह किया कि वे गांधी जी पर लॉर्ड इरविन से इन तीनों की फाँसी को उम्र-कैद में बदलवाने के लिये जोर डालें। 

Chandra Shekhar Azad Jayanti [Hindi] | अल्फ्रेड पार्क में जब वे अपने एक मित्र सुखदेव राज से मन्त्रणा कर ही रहे थे तभी सी०आई०डी० का एस०एस०पी० नॉट बाबर जीप से वहाँ आ पहुँचा। उसके पीछे-पीछे भारी संख्या में कर्नलगंज थाने से पुलिस भी आ गयी। दोनों ओर से हुई भयंकर गोलीबारी में आजाद ने तीन पुलिस कर्मियों को मौत के घाट उतार दिया और कई अंग्रेज़ सैनिक घायल हो गए। अंत में जब उनकी बंदूक में एक ही गोली बची तो वो गोली उन्होंने खुद को मार ली और वीरगति को प्राप्त हो गए। यह दुखद घटना 27 फ़रवरी 1931के दिन घटित हुई और हमेशा के लिये इतिहास में दर्ज हो गयी।

Chandra Shekhar Azad Jayanti [Hindi]| भेष बनाने में माहिर थे चंद्रशेखर आजाद

आजाद प्रखर देशभक्त थे। काकोरी काण्ड में फरार होने के बाद से ही उन्होंने छिपने के लिए साधु का वेश बनाना बखूबी सीख लिया था और इसका उपयोग उन्होंने कई बार किया। एक बार वे दल के लिये धन जुटाने हेतु गाज़ीपुर के एक मरणासन्न साधु के पास चेला बनकर भी रहे ताकि उसके मरने के बाद मठ की सम्पत्ति उनके हाथ लग जाये। परन्तु वहाँ जाकर जब उन्हें पता चला कि साधु उनके पहुँचने के पश्चात् मरणासन्न नहीं रहा अपितु और अधिक हट्टा-कट्टा होने लगा तो वे वापस आ गये।

एक ऐसी घटना जब अन्य क्रांतिकारियों ने चंद्रशेखर आजाद को खूब सराहा

जब क्रांतिकारी आंदोलन उग्र हुआ, तब आजाद उस तरफ खिंचे और ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट आर्मी’ से जुड़ गए। रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में आजाद ने काकोरी षड्यंत्र (1925) में सक्रिय भाग लिया और पुलिस की आंखों में धूल झोंककर फरार हो गए। 17 दिसंबर, 1928 को चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह और राजगुरु ने शाम के समय लाहौर में पुलिस अधीक्षक के दफ्तर को घेर लिया और ज्यों ही जे.पी. साण्डर्स अपने अंगरक्षक के साथ मोटर साइकिल पर बैठकर निकले तो राजगुरु ने पहली गोली दाग दी, जो साण्डर्स के माथे पर लग गई वह मोटरसाइकिल से नीचे गिर पड़ा। 

Chandra Shekhar Azad Jayanti [Hindi] | फिर भगत सिंह ने आगे बढ़कर 4-6 गोलियां दाग कर उसे बिल्कुल ठंडा कर दिया। जब साण्डर्स के अंगरक्षक ने उनका पीछा किया, तो चंद्रशेखर आजाद ने अपनी गोली से उसे भी समाप्त कर दिया। इतना ही नहीं लाहौर में जगह-जगह परचे चिपका दिए गए, जिन पर लिखा था- लाला लाजपतराय की मृत्यु का बदला ले लिया गया है। उनके इस कदम को समस्त भारत के क्रांतिकारियों ने खूब सराहा।

अपना नाम आजाद तथा घर का नाम जेल बताया

1920-21 के वर्षों में वे गांधीजी के असहयोग आंदोलन से जुड़े। वे गिरफ्तार हुए और जज के समक्ष प्रस्तुत किए गए। जहां उन्होंने अपना नाम ‘आजाद’, पिता का नाम ‘स्वतंत्रता’ और ‘जेल’ को उनका निवास बताया। उन्हें 15 कोड़ों की सजा दी गई। हर कोड़े के वार के साथ उन्होंने, ‘वंदे मातरम्’ और ‘महात्मा गांधी की जय’ का स्वर बुलंद किया।

Chandra Shekhar Azad Jayanti [Hindi] | गरम दल के नेता थे चंद्रशेखर आजाद

गरम दल का अर्थ होता है हिंसा के मार्ग पर चलकर अर्थात लड़कर अंग्रेजों से आजादी लेना। चंद्रशेखर आजाद का मानना था कि आजादी अंग्रेजों से लड़ कर ही ली जा सकती है इसलिए वे गरम दल के क्रांतिकारी थे, वही दूसरी ओर गांधीजी नरम दल के नेता थे जो की अहिंसा के मार्ग पर चलकर आजादी प्राप्त करना चाहते थे। किंतु चंद्रशेखर आजाद का स्वभाव अलग था, हालांकि वे महात्मा गांधी का काफी सम्मान किया करते थे और उनके साथ कई आंदोलनों में उन्होंने भाग लिया।

श्रीकृष्ण सरल ने चंद्रशेखर आजाद पर लिखा एक खंड काव्य ‘चंद्रशेखर आजाद’

श्रीकृष्ण सरल उन भारतीय कवियों और लेखकों में से एक हैं जिन्होंने भारतीय क्रांतिकारियों पर अनेक पुस्तकें लिखीं, जिनमें पन्द्रह महाकाव्य हैं। इस खंडकाव्य चंद्रशेखर आजाद से कुछ अति महत्वपूर्ण अंग हमने अपने पाठकों के लिए लिया है।

चन्द्रशेखर नाम, सूरज का प्रखर उत्ताप हूँ मैं,

फूटते ज्वालामुखी-सा, क्रांति का उद्घोष हूँ मैं।

कोश जख्मों का, लगे इतिहास के जो वक्ष पर है,

चीखते प्रतिरोध का जलता हुआ आक्रोश हूँ मैं।

विवश अधरों पर सुलगता गीत हूँ विद्रोह का मैं,

नाश के मन पर नशे जैसा चढ़ा उन्माद हूँ मैं।

मैं गुलामी का कफन, उजला सपन स्वाधीनता का,

नाम से आजाद, हर संकल्प से फौलाद हूँ मैं। 

सिसकियों पर, अब किसी अन्याय को पलने न दूँगा,

जुल्म के सिक्के किसी के, मैं यहाँ चलने न दूँगा।

खून के दीपक जलाकर अब दिवाली ही मनेगी,

इस धरा पर, अब दिलों की होलियाँ जलने न दूँगा। 

चंद्रशेखर आजाद ने हमेशा आजाद रहने की शपथ ली थी

चंद्रशेखर आजाद ने संकल्प किया था कि वे न कभी पकड़े जाएंगे और न ब्रिटिश सरकार उन्हें फांसी दे सकेगी। इसी संकल्प को पूरा करने के लिए उन्होंने 27 फरवरी, 1931 को अल्फ्रेड पार्क में स्वयं को गोली मारकर मातृभूमि के लिए प्राणों की आहुति दे दी।

भरी सर्दी में पसीने से नहा रहे थे चंद्रशेखर आजाद

वर्ष 1921 में महात्मा गाँधी ने जब असहयोग आन्दोलन की घोषणा की थी तब चन्द्रशेखर की उम्र मात्र 15 वर्ष थी और वे उस आन्दोलन में शामिल हो गए थे। इस आन्दोलन में चन्द्रशेखर पहली बार गिरफ्तार हुए थे। इसके बाद चन्द्रशेखर को थाने ले जाकर हवालात में बंद कर दिया गया। दिसम्बर में कड़ाके की ठण्ड में आज़ाद को ओढ़ने–बिछाने के लिए कोई बिस्तर नहीं दिया गया था। जब आधी रात को इंसपेक्टर चन्द्रशेखर को कोठरी में देखने गया तो आश्चर्यचकित रह गया। बालक चन्द्रशेखर दंड-बैठक लगा रहे थे और उस कड़कड़ाती ठंड में भी पसीने से नहा रहे थे।

चंद्रशेखर आजाद के नारे और कहावतें (Chandra Shekhar Azad Quotes in Hindi)

  1. “दुश्मन की गोलियों का, हम सामना करेंगे।  आजाद ही रहे हैं, आजाद ही रहेंगे।”
  1. “अगर अब तक तेरा खून नहीं खौलता, तो यह पानी है जो आपकी रगों में बहता है।”
  1. “यौवन एक अभिशाप है, अगर यह मातृभूमि की सेवा नहीं करता है।”

कबीर परमेश्वर जी की वाणियां शूरवीरों के संबंध में:

या तो जननी संत जने, या दानी या शूर।

ना तो रहले बांझड़ी क्यों व्यर्थ गवाएं नूर।।

अर्थकबीर परमेश्वर जी कहते हैं, धन्य हैं वे माताएं जो अपने बच्चों को विश्वकल्याण, समाज कल्याण के लिए संतों की संगत करने और सत्संग सुनने की प्रेरणा देती हैं, दूसरे नंबर की वे माताएं हैं जो दान करने की प्रेरणा देती है तथा तीसरे नंबर की वे माताएं हैं जो अपने देश की बहन बेटियों की रक्षा के लिए अपने बच्चों को शूरवीर बनने की प्रेरणा देती हैं। अगर कोई माता इन तीनों में से कोई भी प्रेरणा नहीं देती हैं तो उन माताओं ने अपना शरीर बर्बाद कर लिया क्योंकि तीनों गुणों से हीन बच्चे तो सिर्फ और सिर्फ धरती पर बोझ हैं। ऐसे तीनों गुणों से रहित बच्चे समाज में बाधा ही उत्पन्न करते हैं।

कबीर सत् ना छोडे सूरमा, सत् छोडे पत जाये ।

सत् के बाँधे लक्ष्मी, फेर मिलेगी आय ॥

अर्थ- कबीर परमेश्वर जी कहते हैं एक सच्चे शूरवीर को कभी भी सत्य का साथ नहीं छोड़ना चाहिए क्योंकि सत्य का साथ छोड़ देने पर पतन हो जाता है और यदि आप सत्य के साथ हैं तो धन दौलत शौर्य इत्यादि सभी वापस आ जाता है क्योंकि धन दौलत इत्यादि सभी वस्तुएं सत्य के साथ बंधी हुई हैं जहां सत्य होगा वहां यह सब वस्तुएं स्वत: ही आ जाती हैं।

कबीर सूरा के मैदान में, क्या कायर का काम।

कायर भागे पीठ देई, सूरा करे संग्राम॥

कबीर सूरा के मैदान में, कायर का क्या काम ।

सूरा सो सूरा मिलै, तब पूरा संग्राम ॥

अर्थ– कबीर परमेश्वर इन दोहों के माध्यम से सभी जीवों को समझाते हुए कहते हैं कि वीरों के युद्ध क्षेत्र में कायरों का कोई काम नहीं होता। कायर तो युद्ध छोड़ पीठ दिखाकर भाग जाता है। लेकिन शूरवीर निरंतर युद्ध में डटा रहता है और वो ही संग्राम को पूरा करते हैं। इसका अर्थ यह भी है कि एक शूरवीर को जब उसका शूरवीर मिल जाता है अर्थात पूर्ण परमात्मा मिल जाता है तभी उसका संग्राम अर्थात भक्ति मर्यादा का जो संघर्ष होता है वह पूरा होता है।

कबीर, सूरा सोई सराहिये, लडै धनी के हेत ।

पुरजा पुरजा है गिरै, तौऊ ना छाडै खेत ॥

अर्थ– कबीर साहेब जी कहते हैं कि उस वीर ( शूरवीर ) की सराहना करें जो महान प्रभु ( पूर्ण परमेश्वर ) के लिए निरंतर संघर्ष – साधना करता है अर्थात् आन उपासना ना करके केवल एक ही पूर्ण परमात्मा की साधना पर विश्वासपूर्वक कायम रहता है । वह युद्ध के मैदान ( सत् भक्ति मार्ग ) को कभी नहीं छोड़ता है भले ही उसके टुकड़े – टुकड़े हो जायें यानि दुनिया उसे कुछ भी कहे वह अपने भक्ति के मार्ग से डगमग नहीं होता विचलित नहीं होता। वह सर्वस्व त्याग के बावजूद अपनी सत् साधना पथ पर अडिग रहता है। इसी प्रकार कबीर साहेब हम सभी जीवों को बता रहे हैं कि भक्त को चाहिए कि भक्ति – साधना तथा मर्यादा का पालन अन्तिम श्वांस तक करे। जैसे शूरवीर युद्ध के मैदान में या तो मार देता है या स्वयं वीरगति को प्राप्त हो जाता है, वह कदम पीछे नहीं हटाता इसी प्रकार संत तथा भक्ति का रणक्षेत्र है तथा मंत्रों का विश्वासपूर्वक जाप व मर्यादा जो शिष्य गुरू से विमुख होकर भक्ति करना छोड़ देता है तो उसको बहुत हानि होती है।

सूरा सोई जानिये, लड़ा पांच के संग।

हरि नाम राता रहै, चढ़े सबाया रंग।।

अर्थ- शूरवीर उसे जानो जो पाँच विषय-विकारों (काम, क्रोध, लालच, लोभ, मोह) से लड़ता है। शूरवीर सर्वदा हरि के नाम में मग्न रहता है और प्रभु की भक्ति में पूरी तरह रंग गया है।

सूरा सोई जानिये, पांव ना पीछे पेख

आगे चलि पीछा फिरै, ताका मुख नहि देख।

अर्थ– साधना की राह में वह व्यक्ति शूरवीर है जो अपना कदम पीछे नहीं लौटाता है। जो इस राह में आगे चल कर पीछे मुड़ जाता है अर्थात सत भक्ति करना छोड़ देता है उस से संबंध रखने से कोई फायदा नहीं है।

वैसे यहां पर भक्ति मार्ग की बात चल रही है जो सैनिक अपने देश के लिए अपनी बहन बेटियों की रक्षा के लिए  पीछे कदम नहीं हटाता वह शूरवीर है। कबीर साहब कहते हैं कि ऐसे वीर को सीधा स्वर्ग मिलता है।

वर्तमान में कौन बना रहा है ज्ञान और भक्ति से मनुष्य को शूरवीर?

पृथ्वी पर वर्तमान में एक ऐसा संत मौजूद है जिसके ज्ञान तथा ईश्वरीय चमत्कार ने लोगों को एक अच्छा मनुष्य, एक अच्छा भक्त बना कर शूरवीर बना दिया है। भक्ति करने वाला हर भक्त किसी शूरवीर से कम नहीं होता।

भारत तथा विश्व के सभी शूरवीरों से विनम्र निवेदन है कि अगर आप चाहते हैं कि आपके देश में सुख, समृद्धि, शांति, प्रेम, भाईचारा कायम रहे तो आप सभी तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज जी द्वारा लिखित पुस्तक ‘ज्ञान गंगा अवश्य पढ़ें तथा जानें कि हम सब एक परमेश्वर के बच्चे हैं। जब हम सब में सदभावना और आपसी भाईचारे की भावना उत्पन्न होगी तब ही हम देश से और समाज से अराजकता, नकारात्मकता, धार्मिक असमानता और ईर्ष्या की भावना को मिटाने में कामयाब होंगे और एक मज़बूत, स्वतंत्र और अमिट भारत में सुख की सांस ले सकेंगे।

चंद्रशेखर आजाद का नाम आजाद क्यों पड़ा?

असहयोग आंदोलन के दौरान जब उन्हें अंग्रेजों द्वारा गिरफ्तार किया गया, तो जज ने उनसे उनके तथा उनके पिता के नाम के बारे में पूछा। जवाब में चंद्रशेखर ने कहा ‘मेरा नाम आजाद है, मेरे पिता का नाम स्वतंत्रता और पता कारावास है। बस तब से ही उन्हें चंद्रशेखर आजाद कहा जाने लगा।

असहयोग आंदोलन में चंद्रशेखर आजाद की क्या भूमिका थी?

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महानायक आजाद 1920-21 के वर्षों में गांधी जी के असहयोग आंदोलन से जुड़े। वे गिरफ्तार हुए और जज के समक्ष प्रस्तुत किए गए।

चन्द्रशेखर आज़ाद कहाँ शहीद हुए थे?

चंद्रशेखर आज़ाद अल्फ्रेड पार्क में शहीद हुए थे जहां उन्होंने खुद को गोली मारी थी।

चंद्रशेखर आजाद ने खुद को गोली कब मारी?

अल्फ्रेड पार्क में आजाद और पुलिस के बीच भयंकर गोलीबारी हुई थी जिसमें आजाद ने तीन पुलिस कर्मियों को मौत के घाट उतार दिया और कई अंग्रेज़ सैनिको को घायल कर दिया। अंत में जब उनकी बंदूक में एक ही गोली बची तो वो गोली उन्होंने खुद को मार ली और वे वीरगति को प्राप्त हो गए। यह घटना 27 फरवरी 1931 के दिन घटित हुई और हमेशा के लिये इतिहास में दर्ज हो गयी।

चंद्रशेखर आजाद की पिस्तौल का नाम क्या था?

आजाद ने अपनी पिस्टल को बमतुल बुखारा नाम दिया था। जिसे 1976 में लखनऊ से प्रयागराज संग्रहालय में ले जाकर रखा गया।

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