December 3, 2024

कबीर साहेब के हिन्दू मुस्लिम को चेताने और नारी सम्मान के प्रसिद्ध दोहे अर्थ सहित (Kabir Saheb Ke Dohe in Hindi)

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Updated on 8 June 2024: हिंदू-मुस्लिम और अन्य धर्म की प्रभु प्रेमी आत्माएं विभिन्न प्रकार की मान्यताओं और धार्मिक परंपराओं का पालन करती हैं। हिंदू और मुस्लिम दोनों धर्म के अनुसार वह जिस भगवान, अल्लाह की पूजा करते हैं वह ही श्रेष्ठ, सर्वोच्च और सर्वशक्तिमान है। कबीर जी (Kabir Ke Dohe in Hindi) कहते हैं कि मैंने यह शरीर आत्माओं को परमात्मा के बारे में जानने और मुक्त करने के लिए प्राप्त किया है। कबीर जी वास्तव में सर्वोच्च ईश्वर हैं जो एक संत के रूप में प्रकट हुए, वे धर्म और जाति की बेड़ियों से ऊपर थे। कबीर साहिब जी हिंदू और मुसलमान दोनों को कहते थे कि तुम ‘सब मेरी संतान हो’, कबीर साहिब वाणी में कहते हैं कि

कहाँ से आया कहाँ जाओगे, खबर करो अपने तन की।

कोई सदगुरु मिले तो भेद बतावें, खुल जावे अंतर खिड़की।।

भावार्थ: जीव कहाँ से आया है और कहाँ जाएगा? पंडित और मौलवी इसका जबाब धर्मग्रंथों से देते हैं। कबीर साहब कहते हैं कि इस प्रश्न का सही जवाब चाहिए तो किसी सद्गुरु की मदद लो। जब तक अंतर आत्मा से परमात्मा को पाने की कसक नहीं उठेगी तब तक जीव को इस सवाल का सही जवाब नहीं मिलेगा कि इस दुनिया में वो कहाँ से आया है और एक दिन शरीर छोड़ने के बाद कहाँ जाएगा। 


कबीर साहेब के हिंदुओं के लिए दोहे (Kabir Ke Dohe Hinduo ke liye)

माला मुद्रा तिलक छापा, तीरथ बरत में रिया भटकी।

गावे बजावे लोक रिझावे, खबर नहीं अपने तन की।।

kabir Ke dohe [Hindi]: भावार्थ: कबीर साहेब जी कहते हैं माला पहनने, तिलक लगाने, व्रत रखने और तीर्थ करने से जीव का आध्यात्मिक कल्याण नहीं होगा। इसी तरह से जो लोग धार्मिक कथाएं सुनाते हैं, भजन गाकर, नाच कर लोगों को रिझाते हैं, वो भी आम जनता को आत्म कल्याण का उचित सन्मार्ग नहीं दिखाते हैं। कबीर साहब कहते हैं कि ज्ञानी और सच्चे साधू वे हैं, जो शरीर को ही मंदिर-मस्जिद मानते हैं और अपने शरीर के भीतर ही परमात्मा को ढूंढने की कोशिश करते हैं। जो अपनी देह के भीतर ईश्वर का दर्शन कर लेता है, उसका जीवन सफल हो जाता है।


बिना विवेक से गीता बांचे, चेतन को लगी नहीं चटकी।

कहें कबीर सुनो भाई साधो, आवागमन में रिया भटकी।।

kabir Ke dohe

भावार्थ: कबीर साहब कहते हैं कि यदि हृदय में विवेक और वैराग्य का उदय नहीं हुआ है तो गीता पढ़ने से भी उसका क्या भला होगा? जब तक मन को सत्य का झटका नहीं लगेगा और हमारी चेतना पूरी तरह से जागृत नहीं होगी, तब तक आत्मा-परमात्मा की अनुभूति नहीं होगी। कबीर साहब फरमाते हैं कि मन ही बंधन और मोक्ष का मूल कारण है। जब तक मन को नियंत्रित नहीं करोगे और आत्मा की अनुभूति नहीं प्राप्त करोगे, तब तक संसार में आने-जाने का चक्र नहीं रुकेगा। आत्मा के द्वारा ही परमात्मा की भी अनुभूति प्राप्त होती है।



कबीर, पात्र कुपात्र विचार कर, भिक्षा दान जो लेत।
नीच अकर्मी सूम का, दान महा दुःख देत।।

kabir Ke dohe

भावार्थ:- संत यानि गुरू को अपने शिष्य के अतिरिक्त दान-भिक्षा नहीं लेनी चाहिए। कुकर्मी तथा अधर्मी का धन बहुत दुःखी करता है।


कबीर, मार्ग चलै अधो गति, चार हाथ मांही देख।
पर तरिया पर धन ना चाहै समझ धर्म के लेख।।

भावार्थ:- भक्त मार्ग पर चलते समय नीचे देखकर चले। भक्त की दृष्टि चलते समय चार हाथ यानि 6 फुट दूर सामने रहनी चाहिए। धर्म-कर्म के ज्ञान का विचार करके परस्त्री तथा परधन को देखकर दोष दृष्टि न करे।

कबीर, मान अपमान सम कर जानै, तजै जगत की आश।
चाह रहित संस्य रहित, हर्ष शोक नहीं तास।।

kabir Ke dohe [Hindi]: भावार्थ:- भक्त को चाहे कोई अपमानित करे, उस और ध्यान न दे। उसकी बुद्धि पर रहम करे और जो सम्मान करता है, उस पर भी ध्यान न दे यानि किसी के सम्मानवश होकर अपना धर्म खराब न करे। हानि-लाभ को परमात्मा की देन मानकर संतोष करे।


कबीर, भक्ति दान किया नहीं, अब रह कास की ओट।
मार पीट प्राण निकालहीं, जम तोड़ेंगे होठ।।

kabir Ke dohe

भावार्थ:- न गुरू किया, न भक्ति और न दान-धर्म किया, अब किसकी ओट में बचेगा? यम के दूत मारपीट करके प्राण निकालेंगे और बिना विचारे चोट मारेंगे यानि बेरहम होकर पीट-पीटकर तेरे होठ फोड़ेंगे। होठ फोड़ना बेरहमी से पीटना अर्थात् निर्दयता से मारेंगे।


कबीर, क्षमा समान न तप, सुख नहीं संतोष समान।
तृष्णा समान नहीं ब्याधी कोई, धर्म न दया समान।।

भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि क्षमा करना बहुत बड़ा तप है। इसके समान तप नहीं है। संतोष के तुल्य कोई सुख नहीं है। किसी वस्तु की प्राप्ति की इच्छा के समान कोई आपदा नहीं है और दया के समान धर्म नहीं है।


कबीर, योग (भक्ति) के अंग पाँच हैं, संयम मनन एकान्त।
विषय त्याग नाम रटन, होये मोक्ष निश्चिन्त।।

भावार्थ:- भक्ति के चार आवश्यक पहलु हैं। संयम यानि प्रत्येक कार्य में संयम बरतना चाहिए। धन संग्रह करने में, बोलने में, खाने-पीने में, विषय भोगों में संयम रखे यानि भक्त को कम बोलना चाहिए, विषय विकारों का त्याग करना चाहिए, परमात्मा का भजन तथा परमात्मा की वाणी प्रवचनों का मनन करना अनिवार्य है। ऐसे साधना तथा मर्यादा पालन करने से मोक्ष निश्चित प्राप्त होता है।


कबीर, राज तजना सहज है, सहज त्रिया का नेह।
मान बड़ाई ईर्ष्या, दुर्लभ तजना येह।।

kabir Ke dohe [Hindi]: भावार्थ:- अध्यात्म ज्ञान के अभाव के कारण मानव को कुछ असाध्य बुराई घेर लेती हैं जैसे मान-बड़ाई, ईर्ष्या। मान-बड़ाई का अर्थ है पद या धन के अहंकार के कारण सम्मानित व्यक्ति। ये दोनों (सम्मान के कारण बड़प्पन यानि मान-बड़ाई तथा ईर्ष्या) ऐसी बुराई हैं, इनके अभिमान में अँधा होकर इन्हें नहीं छोड़ता। राज त्याग सकता है, स्त्री को त्याग सकता है, परंतु इन दोनों को त्यागना कठिन है।


कबीर, जान बूझ साच्ची तजैं, करै झूठ से नेह।
ताकि संगत हे प्रभु, स्वपन में भी ना देय।।

शब्दार्थ:- कबीर परमेश्वर जी ने कहा कि जो व्यक्ति प्रमाण आँखों देखकर भी झूठ को ही आधार मानता है, उस व्यक्ति से तो परमात्मा! स्वपन में भी ना मिलाना। वह इतना दुष्ट है। उससे ज्ञान चर्चा करना व्यर्थ है।


इन्द्र-कुबेर, ईश की पदवी, ब्रह्मा वरूण धर्मराया।
विष्णुनाथ के पुर कूं जाकर, बहुर अपूठा आया।।

kabir Ke dohe [Hindi]

सरलार्थ:- काल ब्रह्म की साधना करके साधक इन्द्र का पद भी प्राप्त करता है। इन्द्र स्वर्ग के राजा का पद है। इसको देवराज अर्थात् देवताओं का राजा तथा सुरपति भी कहते हैं। यह सिंचाई विभाग अर्थात् वर्षा मंत्रालय भी अपने अधीन रखता है। इन्द्र स्वर्ग के राजा के पद पर 72 चौकड़ी अर्थात् 72 चतुर्युग तक बना रहता है। ऐसे 72 चतुर्युग तक वह साधक इन्द्र के पद पर स्वर्ग के राजा का सुख भोगता है। एक कल्प अर्थात् ब्रह्मा जी के एक दिन में (जो एक हजार आठ (1008) चतुर्युग का होता है) 14 जीव इन्द्र के पद पर रहकर अपना किया पुण्य-कर्म भोगते हैं। इन्द्र के पद को भोगकर वे प्राणी गधे का जीवन प्राप्त करते हैं।


कोटि जन्म तू राजा कीन्हा, मिटि न मन की आशा।
भिक्षुक होकर दर-दर हांड्या, मिला न निर्गुण रासा।।

सरलार्थ:- हे मानव! आप जी ने काल (ब्रह्म) की कठिन से कठिन साधना की। घर त्यागकर जंगल में निवास किया, फिर गाँव व नगर में घर-घर के द्वार पर हांड्या अर्थात् घूमा। भिक्षा प्राप्ति के लिए जंगल में साधनारत साधक निकट के गाँव या शहर में जाता है। एक घर से भिक्षा पूरी नहीं मिलती तो अन्य घरों से भोजन लेकर जंगल में चला जाता है। कभी-कभी तो साधक एक दिन भिक्षा माँगकर लाते हैं, उसी से दो-तीन दिन निर्वाह करते हैं। रोटियों को पतले कपड़े रूमाल जैसे कपड़े को छालना कहते हैं। छालने में लपेटकर वृक्ष की टहनियों से बाँध देते थे। वे रोटियाँ सूख जाती हैं। उनको पानी में भिगोकर नर्म करके खाते थे। वे प्रतिदिन भिक्षा माँगने जाने में जो समय व्यर्थ होता था, उसकी बचत करके उस समय को काल ब्रह्म की साधना में लगाते थे। भावार्थ है कि जन्म-मरण से छुटकारा पाने के लिए अर्थात् पूर्ण मोक्ष प्राप्ति के लिए वेदों में वर्णित विधि तथा लोकवेद से घोरतप करते थे। उनको तत्वदर्शी संत न मिलने के कारण निर्गुण रासा अर्थात् गुप्त ज्ञान जिसे तत्वज्ञान कहते हैं। वह नहीं मिला।


शंखों लहर मेहर की ऊपजैं, कहर नहीं जहाँ कोई।
दास गरीब अचल अविनाशी, सुख का सागर सोई।।

भावार्थ:- जिस समय मैं (लेखक) अकेला होता हूँ, तो कभी-कभी ऐसी हिलोर अंदर से उठती है, उस समय सब अपने-से लगते हैं। चाहे किसी ने मुझे कितना ही कष्ट दे रखा हो, उसके प्रति द्वेष भावना नहीं रहती। सब पर दया भाव बन जाता है। यह स्थिति कुछ मिनट ही रहती है। उसको मेहर की लहर कहा है। सतलोक अर्थात् सनातन परम धाम में जाने के पश्चात् प्रत्येक प्राणी को इतना आनन्द आता है। वहाँ पर ऐसी असँख्यों लहरें आत्मा में उठती रहती हैं। जब वह लहर मेरी आत्मा से हट जाती है तो वही दुःखमय स्थिति प्रारम्भ हो जाती है। उसने ऐसा क्यों कहा?, वह व्यक्ति अच्छा नहीं है, वो हानि हो गई, यह हो गया, वह हो गया। यह कहर (दुःख) की लहर कही जाती है। उस सतलोक में असँख्य लहर मेहर (दया) की उठती हैं, वहाँ कोई कहर (भयँकर दुःख) नहीं है।


मन तू चल रे सुख के सागर, जहाँ शब्द सिंधु रत्नागर।।(टेक)
कोटि जन्म तोहे भ्रमत होगे, कुछ नहीं हाथ लगा रे।
कुकर शुकर खर भया बौरे, कौआ हँस बुगा रे।।

kabir Ke dohe [Hindi]: भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने अपनी अच्छी आत्मा संत गरीबदास जी को सूक्ष्मवेद समझाया, उसको संत गरीबदास जी (गाँव-छुड़ानी जिला-झज्जर, हरियाणा प्रान्त) ने आत्मा तथा मन को पात्र बनाकर विश्व के मानव को काल ब्रह्म के लोक का कष्ट तथा सतलोक का सुख बताकर उस परमधाम में चलने के लिए सत्य साधना जो शास्त्रोक्त है, करने की प्रेरणा की है। मन तू चल रे सुख के सागर अर्थात् सनातन परम धाम में चल जहाँ पर शब्द नष्ट नहीं होता। इसलिए शब्द का अर्थ अविनाशीपन से है कि वह स्थान अमरत्व का सिंधु अर्थात् सागर है और मोक्ष रूपी रत्न का आगर अर्थात् खान है। इस काल ब्रह्म के लोक में आप जी ने भक्ति भी की। परंतु शास्त्रानुकूल साधना बताने वाले तत्वदर्शी संत न मिलने के कारण आप करोड़ों जन्मों से भटक रहे हो।

कुष्टी हो संत बंदगी कीजिए। जे हो वैश्या को प्रभु विश्वास, चरण चित दीजिए।।

kabir Ke dohe

भावार्थ:- यदि किसी भक्त को कुष्ट रोग है और वह भक्ति करने लगा है तो भक्त समाज को चाहिए कि उससे घृणा न करे। उसको प्रणाम करे जैसे अन्य भक्तों को करते हैं। उसका सम्मान करना चाहिए। उसका हौंसला बढ़ाना चाहिए। भक्ति करने से उसका जीवन सफल होगा, रोग भी ठीक हो जाएगा। इसी प्रकार किसी वैश्या बेटी-बहन को प्रेरणा बनी है भक्ति करने की, सत्संग में आने की तो उसको परमात्मा पर विश्वास हुआ है। वह सत्संग विचार सुनेगी तो बुराई भी छूट जाएगी। उसका कल्याण हो जाएगा। समाज से बुराई निकल जाएगी। यदि वह सत्संग में आएगी ही नहीं तो उसको अपने पाप कर्मों का अहसास कैसे होगा?



कबीर, मानुष जन्म दुर्लभ है, मिले न बारं-बार।
तरवर से पत्ता टूट गिरे, बहुर ना लागे डार।।

भावार्थ:- कबीर परमात्मा जी ने समझाया है कि हे मानव शरीरधारी प्राणी! यह मानव जन्म (स्त्री/पुरूष) बहुत कठिनता से युगों पर्यन्त प्राप्त होता है। यह बार-बार नहीं मिलता। इस शरीर के रहते-रहते शुभ कर्म तथा परमात्मा की भक्ति कर, अन्यथा यह शरीर समाप्त हो गया तो आप पुनः इसी स्थिति यानि मानव शरीर को प्राप्त नहीं कर पाओगे। जैसे वृक्ष से पत्ता टूटने के पश्चात् उसी डाल पर पुनः नहीं लगता। इसलिए इस मानव शरीर के अवसर को व्यर्थ न गँवा।


कबीर, मानुष जन्म पाय कर, नहीं रटैं हरि नाम।
जैसे कुंआ जल बिना, बनवाया क्या काम।।

kabir Ke dohe

भावार्थ:- मानव जीवन में यदि भक्ति नहीं करता तो वह जीवन ऐसा है जैसे सुंदर कुंआ बना रखा है। यदि उसमें जल नहीं है या जल है तो खारा (पीने योग्य नहीं) है, उसका भी नाम भले ही कुंआ है, परंतु गुण कुंए वाले नहीं हैं। इसी प्रकार मनुष्य भक्ति नहीं करता तो उसको भी मानव कहते हैं, परंतु मनुष्य वाले गुण नहीं हैं।


कबीर, काया तेरी है नहीं, माया कहाँ से होय।
भक्ति कर दिल पाक से, जीवन है दिन दोय।।
बिन उपदेश अचम्भ है, क्यों जिवत हैं प्राण।
भक्ति बिना कहाँ ठौर है, ये नर नाहीं पाषाण।।

भावार्थ:- परमात्मा कबीर जी कह रहे हैं कि हे भोले मानव! मुझे आश्चर्य है कि बिना गुरू से दीक्षा लिए किस आशा को लेकर जीवित है। न तो शरीर तेरा है, यह भी त्यागकर जाएगा। फिर सम्पत्ति आपकी कैसे है? जिनको यह विवेक नहीं कि भक्ति बिना जीव का कहीं भी ठिकाना नहीं है तो वे नर यानि मानव नहीं हैं, वे तो पत्थर हैं। उनकी बुद्धि पर पत्थर गिरे हैं।


कबीर, नौ मन सूत उलझिया, ऋषि रहे झख मार।
सतगुरू ऐसा सुलझा दे, उलझे न दूजी बार।।

भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि अध्यात्म ज्ञान रूपी नौ मन सूत उलझा हुआ है। एक कि.ग्रा. उलझे हुए सूत को सीधा करने में एक दिन से भी अधिक जुलाहों का लग जाता था। यदि सुलझाते समय धागा टूट जाता तो कपड़े में गाँठ लग जाती। गाँठ-गठीले कपड़े को कोई मोल नहीं लेता था। इसलिए परमेश्वर कबीर जुलाहे ने जुलाहों का सटीक उदाहरण बताकर समझाया है कि अधिक उलझे हुए सूत को कोई नहीं सुलझाता था। अध्यात्म ज्ञान उसी नौ मन यानि 360 किलो उलझे हुए सूत के समान है जिसको सतगुरू अथार्त् तत्वदशीर् संत ऐसा सुलझा देगा जो पुनः नहीं उलझेगा।


एक राम दशरथ का बेटा , एक राम घट घट में बैठा ।

एक राम का सकल पसारा , एक राम त्रिभुवन से न्यारा ||

एक राम इन सबसे न्यारा,  चौथा छोड़ पांचवा को धावै , कहै कबीर सो हम पर आवै ।।

भावार्थ: कबीर साहेब कहते है कि पहला राम दशरथ का बेटा है, दूसरा राम जो हमारे घट-घट में बैठा है और वो है हमारा मन, तीसरा राम काल निरंजन नाशवान 21 ब्रह्मांड का मालिक है, चौथा राम परब्रह्म/ अक्षर पुरुष (नाशवान 7 शंख ब्रह्मांड का मालिक ), परन्तु सबसे न्यारा है पांचवा और असली राम (अनंत ब्रह्माण्ड, अमरलोक का मालिक कबीर परमपिता परमेश्वर ) जो सबसे ऊंचा है, सबसे बड़ी ताकत है, वह इस सृष्टि का कर्ता-धर्ता है। कबीर साहब ने उस सृजनहार या राम को याद करने के लिए कहा है।


क्या मांगुँ कुछ थिर ना रहाई, देखत नैन चला जग जाई।
एक लख पूत सवा लख नाती, उस रावण कै दीवा न बाती।।

kabir Ke dohe [Hindi]: भावार्थ :- यदि एक मनुष्य एक पुत्र से वंश बेल को सदा बनाए रखना चाहता है तो यह उसकी भूल है। जैसे श्रीलंका के राजा रावण के एक लाख पुत्र थे तथा सवा लाख पौत्र थे। वर्तमान में उसके कुल (वंश) में कोई घर में दीप जलाने वाला भी नहीं है। सब नष्ट हो गए। इसलिए हे मानव! परमात्मा से यह क्या माँगता है जो स्थाई ही नहीं है। यह अध्यात्म ज्ञान के अभाव के कारण प्रेरणा बनी है। परमात्मा आप जी को आपका संस्कार देता है। आपका किया कुछ नहीं हो रहा है।


कबीर, नौ मन सूत उलझिया, ऋषि रहे झख मार।
सतगुरू ऐसा सुलझा दे, उलझे न दूजी बार।।

भावार्थ :- परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि अध्यात्म ज्ञान रूपी नौ मन सूत उलझा हुआ है। एक कि.ग्रा. उलझे हुए सूत को सीधा करने में एक दिन से भी अधिक जुलाहों का लग जाता था। यदि सुलझाते समय धागा टूट जाता तो कपड़े में गाँठ लग जाती। गाँठ-गठीले कपड़े को कोई मोल नहीं लेता था। इसलिए परमेश्वर कबीर जुलाहे ने जुलाहों का सटीक उदाहरण बताकर समझाया है कि अधिक उलझे हुए सूत को कोई नहीं सुलझाता था। अध्यात्म ज्ञान उसी नौ मन उलझे हुए सूत के समान है जिसको सतगुरू अर्थात् तत्वदर्शी संत ऐसा सुलझा देगा जो पुनः नहीं उलझेगा।


कबीर, माया दासी संत की, उभय दे आशीष।
विलसी और लातों छड़ी, सुमर-सुमर जगदीश।।

kabir Ke dohe [Hindi]: भावार्थ :- सर्व सुख-सुविधाऐं धन से होती हैं। वह धन शास्त्राविधि अनुसार भक्ति करने वाले संत-भक्त की भक्ति का स्वतः होने वाला, जिसको प्राप्त करना उद्देश्य नहीं, वह फिर भी अवश्य प्राप्त होता है, By Product होता है। जैसे जिसने
गेहूँ की फसल बोई तो उसका उद्देश्य गेहूँ का अन्न प्राप्त करना है। परंतु भुष अर्थात् चारा भी अवश्य प्राप्त होता है। चारा, तूड़ा गेहूँ के अन्न का By Product है। इसी प्रकार सत्य साधना करने वाले को अपने आप धन माया मिलती है। साधक उसको भोगता है, वह चरणों में पड़ी रहती है अर्थात् धन का अभाव नहीं रहता अपितु आवश्यकता से अधिक प्राप्त रहती है। परमेश्वर की भक्ति करके माया का भी आनन्द भक्त, संत प्राप्त करते हैं तथा पूर्ण मोक्ष भी प्राप्त करते हैं।


सतयुग में सतसुकृत कह टेरा,  त्रेता नाम मुनिन्द्र मेरा।

द्वापर में करुणामय कहलाया, कलयुग में नाम कबीर धराया।।

भावार्थ: कबीर परमेश्वर चारों युगों में आते हैं। कबीर साहिब जी ने बताया है कि जब मैं सतयुग में आया था तब मेरा नाम सत सुकृत था। त्रेता युग में मेरा नाम मुनिंदर था द्वापर युग में मेरा नाम करुणामय था और कलयुग में मेरा नाम कबीर है।


चारों युगों में मेरे संत पुकारें, और कूक कहा हम हेल रे।

हीरे मानिक मोती बरसें ये जग चुगता ढ़ेल रे ||

भावार्थ: हम सत साधना और तत्वज्ञान रुपी हीरे मोतियों की वर्षा कर रहे हैं कि बच्चों ये भक्ति करो इससे बहुत लाभ होगा। हमारी बात को न सुनकर इन नकली संतों गुरुओं आचार्यों शंकराचार्यो की बातों पर आरुढ़ हो चुके हो तुम और ये कंकर पत्थर इकट्ठे कर रहे हो जिनका कोई मूल्य नहीं है भगवान के दरबार में।


कबीर, पत्थर पूजें हरि मिले तो मैं पूजूँ पहार।

तातें तो चक्की भली, पीस खाये संसार।।

भावार्थ: कबीर साहेब जी (kabir Ke dohe in Hindi) हिंदुओं को समझाते हुए कहते हैं कि किसी भी देवी-देवता की आप पत्थर की मूर्ति बनाकर उसकी पूजा करते हैं जो कि शास्त्र विरुद्ध है। जो कि हमें कुछ नही दे सकती। इनकी पूजा से अच्छा चक्की की पूजा करना है जिससे हमें खाने के लिए आटा मिलता है।

Sant kabir Saheb Ke Dohe hinduo ke lie

वेद पढ़ें पर भेद ना जानें, बांचें पुराण अठारा।

पत्थर की पूजा करें, भूले सिरजनहारा।।

भावार्थ: वेदों व पुराणों का यथार्थ ज्ञान न होने के कारण हिन्दू धर्म के धर्मगुरुओं को सृजनहार अर्थात परम अक्षर ब्रह्म का ज्ञान भी नहीं हैं इसलिए वे पत्थर पूजा में लगे हुए है। सतगुरु के अभाव में वे वेदों को पढ़ने के बाद भी उनके सही ज्ञान से परिचित नहीं हो सके।


कबीर, पाहन ही का देहरा, पाहन ही का देव।

पूजनहारा आंधरा, क्यों करि माने सेव।।

भावार्थ: कबीर साहेब कहते है कि पत्थर के बने मंदिर में भगवान भी पत्थर के ही हैं। पुजारी भी अंधे की तरह विवेकहीन हैं तो ईश्वर उनकी पूजा से कैसे प्रसन्न होंगे।


कबीर, कागद केरी नाव री, पानी केरी गंग।

कहे कबीर कैसे तिरे, पांच कुसंगी संग।।

भावार्थ: यह शरीर कागज की तरह नाशवान है जो संसार रुपी नदी की इच्छाओं-वासनाओं में डूबा हुआ है। जब तक पांच विकार (काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार) पर नियंत्रण नहीं कर लिया जाता है तब तक संसार से मुक्ति नहीं मिल सकती।


जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।

मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान ।।

भावार्थ: परमात्मा कबीर जी हिंदुओं में फैले जातिवाद पर कटाक्ष करते हुए कहते थे कि किसी व्यक्ति से उसकी जाति नहीं पूछनी चाहिए बल्कि ज्ञान की बात करनी चाहिए। असली मोल तो तलवार का होता है, म्यान का नहीं।


पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ।।

भावार्थ: परमात्मा कबीर जी कहते हैं कि किताबें पढ़ पढ़ कर लोग शिक्षा तो हासिल कर लेते हैं लेकिन कोई ज्ञानी नहीं हो पाता। जो व्यक्ति प्रेम वाला ढाई अक्षर पढ़ ले, वही सबसे बड़ा ज्ञानी है और सबसे बड़ा पंडित है।


माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर।

कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।।

भावार्थ: कबीर जी अपनी उपरोक्त वाणी के माध्यम से उन लोगों पर कटाक्ष कर रहे हैं जो लम्बे समय तक हाथ में माला तो घुमाते है, पर उनके मन का भाव नहीं बदलता, उनके मन की हलचल शांत नहीं होती। कबीर जी ऐसे व्यक्ति को कहते हैं कि हाथ की इस माला को फेरना छोड़ कर मन को सांसारिक आडंबरों से हटाकर भक्ति में लगाओ।


मानुष जन्म दुर्लभ है, मिले न बारम्बार ।

तरवर से पत्ता टूट गिरे, बहुरि न लागे डारि ।।

भावार्थ: परमात्मा कबीर जी हिन्दू और मुस्लिम दोनों को मनुष्य जीवन की महत्ता समझाते हुए कहते हैं कि मानव जन्म पाना कठिन है। यह शरीर बार-बार नहीं मिलता। जो फल वृक्ष से नीचे गिर पड़ता है वह पुन: उसकी डाल पर नहीं लगता। इसी तरह मानव शरीर छूट जाने पर दोबारा मनुष्य जन्म आसानी से नही मिलता है, और पछताने के अलावा कोई चारा नहीं रह जाता।


ज्यों तिल माहि तेल है ,ज्यों चकमक में आग।

तेरा साईं तुझ ही में है ,जाग सके तो जाग।।

kabir Ke dohe [Hindi]: भावार्थ: कबीर जी हिंदू और मुसलमान दोनों को समझाते हुए कहते हैं कि जैसे तिल के अंदर तेल होता है और आग के अंदर रोशनी होती है ठीक वैसे ही हमारा ईश्वर, अल्लाह हमारे अंदर ही विद्यमान है, अगर ढूंढ सको तो ढूंढ लो।


पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात ।

एक दिना छिप जाएगा, ज्यों तारा परभात ।।

भावार्थ: कबीर जी लोगों को नेकी करने की सलाह देते हुए इस क्षणभंगुर मानव शरीर की सच्चाई लोगों को बता रहे हैं कि पानी के बुलबुले की तरह मनुष्य का शरीर क्षणभंगुर है। जैसे प्रभात होते ही तारे छिप जाते हैं, वैसे ही ये देह भी एक दिन नष्ट हो जाएगी।


कबीर, सुमिरण से सुख होत है, सुमिरण से दुःख जाए।

कहैं कबीर सुमिरण किए, सांई माहिं समाय।।

Kabir ke Dohe in Hindi

भावार्थ: नाम (उपदेश) को केवल दु:ख निवारण की दृष्टि कोण से नहीं लेना चाहिए बल्कि आत्म कल्याण के लिए लेना चाहिए। फिर सुमिरण से सर्व सुख अपने आप आ जाते हैं और मोक्ष की प्राप्ति भी होती है।


लाडू लावन लापसी, पूजा चढ़े अपार। पूजी पुजारी ले गया, मूरत के मुह छार।।

भावार्थ: कबीर साहेब ने सदियों पहले दुनिया के इस सबसे बड़े घोटाले के बारे में बताया था कि आपका यह सारा माल ब्राह्मण-पुजारी ले जाता है और भगवान को कुछ नहीं मिलता, इसलिए मंदिरों में ब्राह्मणों को दान करना बंद करो ।


जो मम संत सत उपदेश दृढ़ावै (बतावै), वाके संग सभि राड़ बढ़ावै।
या सब संत महंतन की करणी, धमर्दास मैं तो से वर्णी।।

कबीर साहेब के दोहे

भावार्थ: कबीर साहेब अपने प्रिय शिष्य धमर्दास को इस वाणी में ये समझा रहे हैं कि जो मेरा संत सत भक्ति मार्ग को बताएगा उसके साथ सभी संत व महंत झगड़ा करेंगे। ये उसकी पहचान होगी।


राम कहै मेरे साध को, दुःख ना दीजो कोए।
साध दुखाय मैं दुःखी, मेरा आपा भी दुःखी होय।।

हिरण्यक शिपु उदर (पेट) विदारिया, मैं ही मार्या कंश।

जो मेरे साधु को सतावै, वाका खो-दूं वंश।।

Kabir ke Dohe in Hindi


साध सतावन कोटि पाप है, अनगिन हत्या अपराधं।
दुर्वासा की कल्प काल से, प्रलय हो गए यादव।।

kabir Ke dohe [Hindi]: भावार्थ: उपरोक्त वाणी में सतगुरु गरीबदास जी साहेब प्रमाण दे रहे हैं कि परमेश्वर कहते हैं कि मेरे संत को दुःखी मत कर देना। जो मेरे संत को दुःखी करता है समझो मुझे दुःखी करता है। जब मेरे भक्त प्रहलाद को दुःखी किया तब मैंने हिरणयकशिपु का पेट फाड़ा और मैंने ही कंश को मारा और जो मेरे साधु को दुःखी करेगा मैं उसका वंश मिटा दूंगा। इसलिए संत को सताने के करोड़ों पाप लगते हैं। जैसे अनगिन (अनंत) हत्याएं कर दी हों।


कबीर, और ज्ञान सब ज्ञानड़ी, कबीर ज्ञान सो ज्ञान।
जैसे गोला तोब का, करता चले मैदान।।

भावार्थ है कि यह तत्वज्ञान इतना प्रबल है कि इसके समक्ष अन्य संतों व ऋषियों का ज्ञान टिक नहीं पाएगा। जैसे तोब यंत्र का गोला जहां भी गिरता है वहां पर सर्व किलों तक को ढहा कर साफ मैदान बना देता है।


आच्छे दिन पाछै गए, सतगुरु से किया ना हेत।
अब पछतावा क्या करे, जब चिड़िया चुग गई खेत।।

kabir Ke Dohe [Hindi]

भावार्थ: प्रमाण मिलने के पश्चात् भी सतसाधना पूर्ण संत के बताए अनुसार नहीं करोगे तो यह अनमोल मानव शरीर तथा बिचली पीढ़ी का भक्ति युग हाथ से निकल जाएगा फिर इस समय को याद करके रोवोगे, बहुत पश्चाताप करोगे। फिर कुछ नहीं बनेगा।


मुस्लिमों को अल्लाह की जानकारी (Kabir ke Dohe Muslmano ke liye)

गरीब, हम ही अलख अल्लाह हैं, कुतुब गोस और पीर। 

गरीबदास खालिक धनी हमरा नाम कबीर।।

kabir Ke dohe [Hindi]: भावार्थ: कबीर परमात्मा ने बताया कि मैं अल्लाह हूं! मैं (खालिक) संसार का मालिक (धनी) हूँ। मैं कबीर सर्वव्यापक हूँ। अनंत ब्रह्मांडों की रचना मैंने ही की है।

kabir Saheb Ke Dohe on muslims in hindi

हिन्दू कहूं तो हूँ नहीं, मुसलमान भी नाही

गैबी दोनों बीच में, खेलूं दोनों माही ।।

भावार्थ: कबीर साहब कहते हैं कि मैं न तो हिन्दू हूँ और न ही मुसलमान। मैं तो दोनों के बीच में छिपा हुआ हूँ।  इसलिए हिन्दू-मुस्लिम दोनों को ही अपने धर्म में सुधार करने का संदेश दिया। कबीर साहब ने मंदिर और मस्जिद दोनों ही बनाने का विरोध किया क्योंकि उनके अनुसार मानव तन ही असली मंदिर-मस्जिद है, जिसमें परमात्मा का साक्षात निवास है।


हिन्दू मुस्लिम दोनों भुलाने, खटपट मांय रिया अटकी |

जोगी जंगम शेख सेवड़ा, लालच मांय रिया भटकी।। 

भावार्थ: हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही आज ईश्वर-पथ से भटक गए हैं, क्योंकि इन्हें कोई सही रास्ता बताने वाला नहीं है। पंडित, मौलवी, योगी और फ़क़ीर सब सांसारिक मोहमाया और धन के लालच में फंसे हुए हैं। वास्तविक ईश्वर-पथ का ज्ञान जब उन्हें खुद ही नहीं है तो वो आम लोंगो को क्या कराएंगे? 


उदर बीज कहा था कलमा, कहा सुन्नत एक ताना।

बाप तुर्क मां हिंदवानी, सो क्यों कर मुस्लामाना।।

Kabir Saheb Ji Dohe in Hindi

परमात्मा कबीर साहिब कहते है कि मां के पेट में कलमा कहां था जब आप मां के पेट से आए तो आपकी सुन्नत भी नहीं थी अर्थात बाद में सब क्रियाएं कर दी गईं। आप जी ने पुरुष की तो सुन्नत कर उसे तो मुसलमान बना दिया परंतु मां तो जैसी थी वैसी ही रही अर्थात हिंदू ही रही।


अरस कुरस पर अल्लह तख्त है, खालिक बिन नहीं खाली।

वे पैगम्बर पाख पुरुष थे, साहिब के अब्दाली।।

kabir Ke dohe [Hindi]: भावार्थ: गरीब दास जी महाराज कहते है कि मोहम्मद, हजरत मूसा, हजरत ईसा आदि पैगम्बर तो पवित्र व्यक्ति थे तथा ये काल के कृपा पात्र थे, परन्तु जो आसमान के अंतिम छोर (सतलोक) में पूर्ण परमात्मा अल्लाहू अकबर अर्थात कबीर परमेश्वर विराजमान है वह साकार है मनुष्य के समान दिखाई देता है यही अल्लाह है।


हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना।

आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना ।।

भावार्थ: परमेश्वर कबीर जी कहते हैं कि हिन्दू राम के भक्त हैं और तुर्क (मुस्लिम) को रहमान प्यारा है। इसी बात पर दोनों लड़-लड़ कर मौत के मुंह में जा पहुंचे, तब भी दोनों में से कोई सच को न जान पाया।


कलमा रोजा बंग नमाज, कद नबी मोहम्मद कीन्हया,

कद मोहम्मद ने मुर्गी मारी, कर्द गले कद दीन्हया॥

भावार्थ: परमात्मा कबीर कह रहे हैं कि कब मोहम्मद जी ने कलमा, रोजा, बंग पढ़ा और कब मोहम्मद जी ने मुर्गी मारी। जब नबी मोहम्मद जी ने कभी भी ऐसा जुल्म करने की सलाह नहीं दी फिर क्यों तुम निर्दोष जीवो की हत्या कर रहे हो?


गला काटि कलमा भरे, किया कहै हलाल। 

साहेब लेखा मांगसी, तब होसी कौन हवाल।।

kabir Ke dohe [Hindi]: भावार्थ: जो लोग बेजुबान जानवरों का गला काटकर कहते हैं कि हलाल किया है पर कभी यह नहीं सोचते कि जब वह साहेब (अल्लाहु अकबर) मृत्यु के बाद लेखा जोखा करेगा तब वहां क्या कहेंगे।


जो गल काटै और का, अपना रहै कटाय।

साईं के दरबार में, बदला कहीं न जाय॥

भावार्थ: जो व्यक्ति किसी जीव का गला काटता है उसे आगे चलकर अपना गला कटवाना पड़ेगा। परमात्मा के दरबार में करनी का फल अवश्य मिलता है। आज यदि हम किसी को मारकर खाते हैं तो अगले जन्म में वह प्राणी हमें मारकर खाएगा।


कहता हूं कहि जात हूं, कहा जू मान हमार।

जाका गला तुम काटि हो, सो फिर काटि तुम्हार।।

भावार्थ: मांस भक्षण का विरोध करते हुए कबीर साहेब जी कहते हैं कि मेरी बात मान लो जिसका गला तुम काटते हो वह भी समय आने पर अगले जन्म में तुम्हारा गला काटेगा।


हिंदू-मुस्लिम, सिक्ख-ईसाई, आपस में सब भाई-भाई। 

आर्य-जैनी और बिश्नोई, एक प्रभू के बच्चे सोई।।

भावार्थ: कबीर परमेश्वर ने कहा है कि, आप हिंदू-मुस्लिम, सिख-ईसाई, आर्य- बिश्नोई, जैनी आदि आदि धर्मों में बंटे हुए हो। लेकिन सच तो यह है कि आप सब एक ही परमात्मा के बच्चे हो।


वेद कतेब झूठे नहीं भाई, झूठे हैं जो समझे नाहीं ||

भावार्थ है कि चारों वेद, चारों कतेब ( कुरान शरीफ-जबूर-इंजील-तौरेत) गलत नहीं हैं। परंतु जो उनको नहीं समझ सके वे नादान हैं।


कबीर सोई पीर है जो जाने पर पीर,

जो पर पीर न जाने सो काफिर बेपीर।|

भावार्थ: कबीर जी ने कहा था कि सच्चा संत वही है जो सहानुभूति रखने वाला और दूसरों का दर्द समझने वाला हो, जो दूसरों का दर्द नहीं समझता वह पीर यानी संत नहीं हो सकता वह तो काफिर है।


काज़ी बैठा कुरान बांचे, ज़मीन बो रहो करकट की।

हर दम साहेब नहीं पहचाना, पकड़ा मुर्गी ले पटकी ||

kabir Ke dohe in Hindi

भावार्थ: कबीर साहब कहते हैं कि मौलवी और काजी कुरान पढ़ते हैं, लेकिन उस पर पूरी तरह से अमल नहीं करते हैं, या यों कह लीजिये कि उसके अनुसार कर्म नहीं करते हैं। वो हर जीव में परमात्मा को नहीं देख पाते हैं, यही वजह है कि वो मुर्गी-मुर्गा, बकरा-बकरी सहित अन्य कई जीवों को पकड़ते हैं और उन्हें मार के खा जाते हैं। कबीर साहब हर जीव पर दया का भाव रखते हैं और हर जीव के अंदर परमात्मा का निवास मानते हैं, इसलिए उन्होंने जीव हत्या का पुरजोर विरोध किया।


नारी के सम्मान में कबीर साहेब जी के विचार (Kabir Saheb Dohe Nari ke Samman Mai)

कबीर साहेब जी का उद्देश्य समाज को नारी के प्रति सजग और सकारात्मक दृष्टिकोण रखने के लिए प्रेरित करना है। कबीर साहेब जी के लिए प्रत्येक आत्मा महत्वपूर्ण है। कबीर जी ने ही नर-नारी की उत्पत्ति की है। ईश्वर ने इंसानों को अपने जैसा बनाया। उन्होंने उन्हें पुरुष और महिला बनाया। ईश्वर के लिए नर और नारी में कोई भेद नहीं है। परंतु फिर भी पुरुष प्रधान समाज ने नारी को सदा ही दबाया है, नारियों को तिरस्कृत करते हैं।

kabir Saheb Ke Dohe nari ke samman mai

kabir Ke dohe in Hindi: आज से करीब ढ़ाई सौ वर्ष पहले कबीर साहेब जी गांव छुड़ानी में रहने वाले दस वर्ष के बालक गरीबदास जी से आकर मिले थे उन्हें अपना तत्वज्ञान समझाया और सतलोक दिखाकर वापस शरीर में छोड़ा। उसके बाद गरीबदास जी ने कबीर साहेब जी की कलमतोड़ महिमा (प्रशंसा) लिखी। आपको बता दें कि यही गरीबदास जी परमेश्वर कबीर साहेब जी के ही अवतार थे। यहाँ हम गरीबदास जी महाराज के दोहों के माध्यम से आपको उन नारियों/ माताओं के बारे में बता रहे हैं जिनसे संत और भक्त आत्माएं उत्पन्न हुईं।

गरीब, नारी नरक ना जानिये, सब संतो की खान।

जामे हरीजन उपजै, सोयी रतन की खान ||

भावार्थ: नारी को नरक मत समझो। वह सभी संतों की खान है। नारी के कोख़ से ही सभी महान पुरुषों की उत्पत्ति होती है वो रत्नों की खान है।


गरीब, नारी नारी भेद है, एक मैली एक पाख।

गरीब,जा उदर ध्रुव ऊपजे, जाकी भरियो साख ।।

kabir Ke dohe [Hindi]: भावार्थ: गरीब दास जी महाराज कबीर साहेब से प्राप्त ज्ञान के आधार पर कहते हैं कि भक्त ध्रुव को जन्म देने वाली भी एक नारी ही थी। ऐसी माता का हमें बार-बार सम्मान करना चाहिए।


गरीब, कामिनी कामिनी भेद है, एक मैली एक पाख ।

जा उदर प्रहलाद थे जा को जोड़ो हाथ ।।

भावार्थ: भक्त प्रहलाद को भी जन्म देने वाली एक नारी ही थी और ऐसी माताओं को हमें हाथ जोड़कर प्रणाम करना चाहिए ।


गरीब कामिनी कामिनी भेद है एक उज्ज्वल एक गंध ।

जा माता परणाम है, जहां भरतरी गोपीचंद ||

भावार्थ: अपने गुरु वचनों पर मर मिटने वाले गोपीचंद और भरतरी को भी जन्म देने वाली माताएं ही थी ऐसी माताओं को बारंबार प्रणाम ।


गरीब,कामिनी कामिनी भेद है एक हीरा एक लाल ।

दत्त गुसाईं अवतरे, अनुसुइया के नाल ।।

भावार्थ: माता अनुसुइया को हम सती अनुसुइया के नाम से भी जानते हैं ऐसी माता को बारंबार प्रणाम जिनकी कोख से दत्तात्रेय जैसे संत पैदा हुए ।


गरीब कामिनी कामिनी भेद है, एक रोझं एक हंस ।

जनक विदेही अवतरे, धन माता कुल वंश।।

भावार्थ: कबीर परमेश्वर जी (kabir Ke dohe) कहते हैं ऐसी माता के कुल और वंश को बार-बार धन्यवाद  जिनकी पुत्री की कोख से जनक जैसे संत, का जन्म हुआ ।


गरीब नारी नारी क्या करै, नारी बहु गुण भेव।

जा माता कुर्बान है जहां ऊपजे सुखदेव।।

भावार्थ: कबीर परमेश्वर जी कहते हैं उस माता की बाल बाल बलिहारी जाऊं जिन्होंने सुखदेव जैसे संत को पैदा किया।


गरीब नारी नारी क्या करें नारी कंचन कूप।

नारी से ऊपजै नामदेव से भूप ।।

भावार्थ: संत नामदेव का बहुत नाम है। उस माता को बार-बार प्रणाम जिससे नामदेव जैसे संत का उदय हुआ अर्थात जन्म हुआ।


गरीब नारी नारी क्या करें नारी भक्त विलास ।

नारी शेती ऊपजे धना भक्त रविदास ।।

भावार्थ: मीराबाई के गुरु संत रविदास जी का जन्म जिस माता से हुआ उस माता को बारंबार प्रणाम कि उस माता ने ऐसे संत को जन्म दिया ।


गरीब, नारी नारी क्या करें नारी कंचन सींध।

नारी से ऊपजे वाजिद और फरीद।।

भावार्थ: पवित्र मुस्लिम धर्म में जन्म लेने वाले दो परम संत राजा वाजिद और बाबा फरीद हुए हैं। वाजिद जी ने परमात्मा प्राप्ति के लिए अपना सारा राज त्याग दिया था और बाबा फरीद ने परमात्मा की प्राप्ति के लिए कड़ा संघर्ष किया, इन दोनों संतों की माताओं को बार-बार प्रणाम।


गरीब,नारी नारी क्या करें नारी में बहु भांत। नारी शेती ऊपजे, शीतलपुरी सुनाथ ।।

गरीब, नारी नारी क्या करें नारी को निरताय । नारी शेती ऊपजे, रामानंद पंथ चलाएं ।।

भावार्थ: आजीवन ब्रह्मचारी रहने वाले रामानंद जी तथा ऐसी महान आत्मा को जन्म देने वाली भी एक नारी ही थी उस माता को बार-बार प्रणाम ।


गरीब, नारी नारी क्या करें नारी नर की खान।

नारी शेती उपजे नानक पद निरबान ।।

भावार्थ: सिख धर्म के प्रवर्तक गुरु नानक देव जी जिन्होंने कबीर परमेश्वर से ज्ञान प्राप्ति के बाद कई आत्माओं का उद्धार किया ऐसे महान संत को जन्म देने वाली एक माता ही थी उसको भी बार-बार प्रणाम।


गरीब,नारी नारी क्या करें,नारी सरगुण बेल।

नारी सेेती ऊपजे, दादू भक्त हमेल।।

भावार्थ: दादू दास जी जिन्होंने कबीर परमेश्वर जी की महिमा का वर्णन किया, का जन्म भी एक माता से हुआ था उनकी माता को बार-बार प्रणाम ।


गरीब,नारी नारी क्या करें नारी का प्रकाश।

नारी सेती ऊपजे, नारद मुनि से दास।।

भावार्थ: प्रसिद्ध मुनि नारद जी जो हमेशा भ्रमण करते रहते हैं उनको भी जन्म देने वाली एक माता ही थी ऐसी नारी को बार-बार प्रणाम।  


गरीब, नारी नारी क्या करें नारी निर्गुण नेश।

नारी सेती ऊपजे, ब्रह्मा विष्णु महेश।।

तीन लोक के स्वामी भगवान ब्रह्मा, विष्णु और महेश इन भगवानों को भी जन्म देने वाली एक माता ही है इनकी माता दुर्गा को भी बार-बार प्रणाम।


गरीब,नारी नारी क्या करे, नारी मूला माय ।

ब्रह्म जोगनी आदि है, चरण कमल ल्यौ लाए ।।

गरीब, नारी नारी क्या करें नारी बिन के होए।

आदिमाया ओंकार है, देखो सुरति समोय।।

गरीब शब्द सरूपी उतरे, सतगुरु सत्य कबीर।

दास गरीब दयाल हैं, डिगे बधावैं धीर।।

भावार्थ: कबीर साहेब जी ने उन सभी महापुरुषों की माताओं को हाथ जोड़कर प्रणाम किया है जिन की कोख से ऐसे संत और भगत आत्मा उत्पन्न हुए ।


kabir Ke dohe: वर्तमान में सभी माताओं और बहनों से प्रार्थना है कि अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दें। माता द्वारा पोषित बालक ही आगे चलकर वयस्क बनता है। अपने बच्चों को बचपन से ही अच्छे संस्कार व तत्वज्ञान से परिचित करवा कर सतभक्ति के मार्ग पर लगाएं ऐसा करने से आपका नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा साथ ही सब का उद्धार भी होगा। बुराइयों से बचे शांतिपूर्वक निर्मल जीवन जीएं । परमेश्वर कबीर साहेब जी की भक्ति करें। अपने पूर्वजों की तरह बाँट कर खाएं। दूसरे की माँ, बहन, बेटी अपनी ही मानें। परमात्मा कबीर जी कहते हैं:- 

पर नारी को देखिए, बहन बेटी के भाव। 

यही काम नाश का सहज उपाय।।

भावार्थ: परमात्मा बताते हैं कि पुरुष को अपनी स्त्री (पत्नी) के अतिरिक्त अन्य स्त्रियों में पति पत्नी वाला भावना नहीं रखना चाहिए। परस्त्री को आयु अनुसार माता, बहन या बेटी के भाव से देखें। भक्ति करके काम को सहजता से नाश किया जा सकता है।


निष्कर्ष

अतः सभी मनुष्यों को जाति, धर्म, लिंग से ऊपर उठकर अपने मोक्ष के लिए प्रयास करना चाहिए साथ ही साथ आपस में कोई मतभेद नहीं रखना चाहिए। वर्तमान में कबीर साहेब की शिक्षाओं का प्रचार संत रामपाल जी महाराज कर रहे है। उनसे नामदीक्षा लेकर कबीर साहेब की शिक्षाओं को जीवन में ढाला जा सकता है। नाम दीक्षा लेने के लिए फार्म भरें

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