श्रीमद्भागवत गीता, हिंदू धर्म का एक पवित्र सद्ग्रंथ है। जिसमें लिखी प्रत्येक बात को प्रत्येक हिन्दू सत्य मानता है। इस पवित्र सद्ग्रंथ श्रीमद्भागवत गीता में 18 अध्याय हैं जिसमें कुल 700 श्लोक हैं। यह तो सर्व विदित है कि पवित्र गीता जी का ज्ञान कुरुक्षेत्र के मैदान में महाभारत युद्ध के समय दिया गया था, जिसे महर्षि वेदव्यास जी ने वर्षों उपरांत ज्यों का त्यों लिख दिया था। इस पवित्र शास्त्र के ज्ञान को वर्षों उपरांत भी हिंदू धर्म के लोग नहीं समझ सके हैं जिससे आज भी इस पवित्र शास्त्र के गूढ़ रहस्यों से लोग अपरिचित हैं। हम अपने इस लेख में इन्हीं गूढ़ रहस्यों को प्रमाण सहित उजागर करने वाले हैं तो आप हमारे इस लेख को अंत तक अवश्य पढ़ें।
क्या गीता मनीषि की उपाधि प्राप्त महात्मा जी को तत् ब्रह्म का पता है?
वास्तविकता में उन्हे ये भी नहीं पता कि गीता का ज्ञान बताने वाले ने गीता अध्याय 7 के श्लोक 29 में अर्जुन को बताया था कि ‘‘जो साधक जरा (वृद्धावस्था) मरण (मृत्यु) से छुटकारा (मोक्ष) चाहते हैं वे तत् ब्रह्म से सम्पूर्ण आध्यात्म से तथा सर्व कर्मों से परिचित हैं।
अर्जुन ने गीता अध्याय 8 श्लोक 1 में प्रश्न किया है कि गीता अध्याय 7 श्लोक 29 में जो तत् ब्रह्म है, वह क्या है? इसका उत्तर गीता ज्ञान देने वाले प्रभु ने गीता अध्याय 8 श्लोक 3 में बताया है कि वह ‘‘परम अक्षर ब्रह्म’’ है। इसके बाद गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 8 श्लोक 5- 7 में अर्जुन को अपनी भक्ति करने को कहा है तथा इसी अध्याय 8 श्लोक 8,9,10 में अपने से अन्य परम अक्षर ब्रह्म यानि सच्चिदानंद घन ब्रह्म की भक्ति करने को कहा है। यह भी स्पष्ट किया है कि जो मेरी भक्ति करता है, मुझे प्राप्त होता है। जो तत् ब्रह्म यानि परम अक्षर ब्रह्म की भक्ति करता है, वह उसी को प्राप्त होता है। फिर अपनी भक्ति का मंत्र ओम् यह एक अक्षर बताया है तथा तत् ब्रह्म (परम अक्षर ब्रह्म/दिव्य परमेश्वर सच्चिदानंद घन ब्रह्म) की भक्ति का तीन नाम का ‘‘ओम् तत् सत्’’ बताया है।
गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में गीता ज्ञान दाता ने उसी परम अक्षर ब्रह्म की शरण में जाने से परम शांति को तथा (शाश्वतम् स्थानम्) सनातन परम धाम (जिसे संत गरीबदास जी ने सत्यलोक/अमरलोक कहा है।) को प्राप्त होना संभव बताया है। उपरोक्त ज्ञान संत रामपाल जी द्वारा बताया व गीता शास्त्र में वीडियो में दिखाकर हमें यानि हिन्दुओं को निष्कर्ष निकालकर समझाया है। जिसको हमारे हिन्दू धर्म प्रचारक/गुरूजन/मनीषी और मंडलेश्वर भी नहीं समझ सके।
इससे स्पष्ट हो जाता है कि ‘‘हिन्दू नहीं समझे गीता का ज्ञान’’। इसे समझे संत रामपाल दास विद्वान। हमारे गुरूदेव भगवान।
क्या गीता ज्ञान दाता अमर है?
हिन्दू धर्मगुरू व प्रचारक आचार्य, शंकराचार्य तथा गीता मनीषी गीता ज्ञान देने वाले (जिसे ये श्री विष्णु का अवतार श्री कृष्ण कहते हैं) को अविनाशी बताते हैं। कहते हैं इनका जन्म-मृत्यु नहीं होता। इनके कोई माता-पिता नहीं। आप देखें स्वयं गीता अध्याय 2 श्लोक 12, गीता अध्याय 4 श्लोक 5, गीता अध्याय 10 श्लोक 2 में गीता ज्ञान देने वाला (इनके अनुसार श्री विष्णु उर्फ श्री कृष्ण कहता है कि ‘‘हे अर्जुन! तेरे और मेरे बहुत जन्म हो चुके हैं, तू नहीं जानता, मैं जानता हूँ।) (गीता अध्याय 4 श्लोक 5) हे अर्जुन! ऐसा नहीं है कि मैं-तू तथा ये सब राजा व सैनिक पहले नहीं थे या आगे नहीं होंगे। अर्थात् मैं (गीता ज्ञान दाता) तू (अर्जुन) तथा ये सब सैनिक आदि-आदि सब पहले भी जन्मे थे, आगे भी जन्मेंगे। (गीता अध्याय 2 श्लोक 12) मेरी उत्पत्ति को न तो ऋषिजन जानते हैं, न सिद्धगण तथा न देवता जानते हैं क्योंकि मैं इन सबका आदि कारण (उत्पत्तिकर्ता) हूँ।
हिन्दू भाईयो कृपया पढ़ें फोटोकॉपी श्रीमद्भगवत गीता पदच्छेद अन्वय के उपरोक्त श्लोकों को यानि गीता अध्याय 4 श्लोक 5, गीता अध्याय 2 श्लोक 12, गीता अध्याय 10 श्लोक 2 व अध्याय 16 के श्लोक 24 जो गीता प्रेस गोरखपुर से मुद्रित है तथा श्री जयदयाल गोयन्दका द्वारा अनुवादित है:-
विचार करें पाठकजन! जो जन्मता-मरता है, वह अविनाशी नहीं है, नाशवान है। नाशवान समर्थ नहीं होता।
यदि गीता ज्ञान देने वाला (श्री विष्णु उर्फ श्री कृष्ण जी) जन्मता-मरता है तो अविनाशी यानि जन्म-मरण से रहित प्रभु कौन है?
इस सवाल का उत्तर गीता अध्याय 2 श्लोक 17 तथा गीता अध्याय 15 के श्लोक 16,17 में तथा गीता अध्याय 18 श्लोक 46- 61 तथा 62 में है।
- गीता अध्याय 2 श्लोक 17:- (गीता ज्ञान दाता ने अपने से अन्य परमेश्वर की महिमा कही है) नाशरहित तो उसको जान जिससे यह सम्पूर्ण जगत व्याप्त है। इस अविनाशी का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है।
- गीता अध्याय 18 श्लोक 46:- (गीता अध्याय 18 श्लोक 46 में भी अपने से अन्य परमेश्वर की महिमा गीता ज्ञान दाता ने बताई है।) जिस परमेश्वर से सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है (और) जिससे यह सम्पूर्ण जगत व्याप्त है। अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।
- गीता अध्याय 18 श्लोक 61:- (गीता ज्ञान दाता ने अपने से अन्य परमेश्वर की महिमा बताई है।) हे अर्जुन! शरीर रूप यंत्र में आरूढ् हुए सम्पूर्ण प्राणियों को परमेश्वर अपनी माया से (उनके कर्मों के अनुसार) भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों के हृदय में स्थित है।
- गीता अध्याय 18 श्लोक 62:- (इस श्लोक में गीता ज्ञान दाता ने अर्जुन को उपरोक्त अपने से अन्य परमेश्वर की शरण में सर्व भाव से जाने के लिए कहा है।) हे भारत! तू सब प्रकार से उस परमेश्वर की शरण में जा। उस परमात्मा की कृपा से (ही तू) परम शांति को (तथा) सनातन परम धाम यानि सत्यलोक (अमर स्थान) को प्राप्त होगा।
- गीता अध्याय 15 श्लोक 16 में कहा है कि इस संसार में दो पुरूष (प्रभु) हैं। एक क्षर पुरूष तथा दूसरा अक्षर पुरूष। ये दोनों तथा इनके अंतर्गत सब प्राणी नाशवान हैं।
- गीता अध्याय 15 श्लोक 17:- गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में गीता ज्ञान देने वाले ने स्पष्ट कर दिया है कि उत्तम पुरूष यानि श्रेष्ठ परमेश्वर तो उपरोक्त क्षर पुरूष और अक्षर पुरूष से अन्य ही है जो परमात्मा कहा जाता है। जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है और वही अविनाशी परमेश्वर है।
हिन्दू भाईयो कृपया पढ़ें प्रमाण के लिए उपरोक्त श्लोकों की फोटोकॉपी श्रीमद्भगवद गीता पदच्छेद अन्वय से जो गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित है तथा श्री जयदयाल गोयन्दका द्वारा अनुवादित है:-
आंखे बंद करने से खतरा नही टल जाता!
हिन्दू भाईयो! कबूतर के आँख बंद कर लेने से बिल्ली का खतरा टल नहीं सकता। उसका भ्रम होता है। सच्चाई को आँखों देखना चाहिए। उसे स्वीकार करना चाहिए। आज सभी शिक्षित है। आज दो सौ वर्ष पुराना भारत नहीं है। जिस समय अपने पूर्वज अशिक्षित व पूर्ण निर्मल आत्मा वाले थे। हमारे अज्ञान धर्म प्रचारकों/मण्डलेश्वरों/मनीषियों/आचार्यों/शंकराचार्यों को पूर्ण विद्वान/गीता मनीषी मानकर इनकी झूठ पर अंध-विश्वास किया और इनके द्वारा बताई शास्त्र विधि त्यागकर मनमानी आचरण वाली भक्ति करके अनमोल जीवन नष्ट कर गए और हमने अपने पूर्वजों की परंपरा का निर्वाह आँखें बंद किए हुए शुरू कर दिया। पूरा पवित्र हिन्दू समाज इन तत्त्वज्ञानहीनों द्वारा भ्रमित है। अब तो आँखें खोलना चाहिए और पुनः गीता को पढ़ना चाहिए।
शास्त्रविधि को त्यागकर मनमाना आचरण कोई लाभ नही दे सकता।
गीता अध्याय 16 श्लोक 23,24 में कहा है कि हे अर्जुन! जो शास्त्रविधि को त्यागकर मनमाना आचरण (भक्ति) करता है, उसे न तो सुख मिलता है, न उसको सिद्धि (सत्य शास्त्रानुकूल साधना से होने वाली कार्य सिद्धि) प्राप्त होती है, न उसकी गति (मोक्ष) होती है। यहां हिन्दू भाईयो को विचार करना चाहिए कि भक्ति इन्हीं तीन वस्तुओं के लिए की जाती है।
1. जीवन में सुख मिले।
2. कार्य सिद्ध हों, कोई संकट न आए।
3. मोक्ष मिले।
शास्त्र में न बताई साधना व भक्ति करने से ये तीनों नहीं मिलेंगी। इसलिए जो गीता में नहीं करने को कहा, वह नहीं करना चाहिए। गीता अध्याय 16 के श्लोक 24 में यह भी स्पष्ट कर दिया है। कहा है कि इससे तेरे लिए हे अर्जुन! कर्तव्य (कौन-सी साधना करनी चाहिए) तथा अकर्तव्य (कौन सी साधना नहीं करनी चाहिए) में शास्त्र ही प्रमाण हैं।
अध्याय 15 श्लोक 18 में गीता ज्ञान दाता ने बताया है कि मैं लोकवेद (दंत कथा) के आधार से पुरूषोत्तम प्रसिद्ध हूँ
गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 8 श्लोक 3 में परम अक्षर ब्रह्म (पुरूष) अपने से अन्य बताया है। श्लोक 5,7 में अपनी भक्ति करने को कहा है तथा गीता अध्याय 8 के ही श्लोक 8,9,10 में अपने से अन्य परम अक्षर ब्रह्म यानि परम अक्षर पुरूष/सच्चिदानंद घन ब्रह्म यानि दिव्य परम पुरूष यानि परमेश्वर की भक्ति करने को कहा है। गीता अध्याय 8 श्लोक 9 में भी उसी को सबका
धारण-पोषण करने वाला बताया है। इसी प्रकार गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में अपने से अन्य परम अक्षर पुरूष को पुरूषोत्तम कहा है। फिर गीता अध्याय 15 श्लोक 18 में अपनी स्थिति बताई है कि मैं तो लोक वेद (सुनी-सुनाई बातों दंत कथाओं) के आधार से पुरूषोत्तम प्रसिद्ध हूँ। {वास्तव पुरूषोत्तम तो ऊपर गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में बता दिया है।}
कुछेक व्यक्ति श्लोक 18 को पढ़कर कहते हैं कि देखो! गीता ज्ञान देने वाला अपने को पुरूषोत्तम कह रहा है। इससे अन्य कोई पुरूषोत्तम नहीं है। उनकी मूर्ख सोच का उत्तर ऊपर स्पष्ट कर दिया गया है। सम्पूर्ण तथा अधिक जानकारी के लिए हिन्दू भाई कृपया पढ़ें पुस्तक ‘‘गीता तेरा ज्ञान अमृत’’ जो संत रामपाल दास जी महाराज (सतलोक आश्रम बरवाला) द्वारा लिखी है तथा उन्हीं की लिखी पुस्तक ‘‘गरिमा गीता की’’ जिनकी कीमत 10 रूपये है। इन्हे घर मंगवाने के लिए कृपया अपना पूरा पता मैसेज करें, ये आपको फ्री भेज दी जाएगी, इसका डाक खर्च भी आपको नहीं देना होगा। संपर्क करने के लिए सम्पर्क सूत्र:- 8222880541, 8222880542, 8222880543, 8222880544
गीता का ज्ञान किसने दिया?
हिंदू धर्म के गुरुओं, आचार्यों, शंकराचार्यों सहित लोगों का मानना है कि श्रीमद्भागवत गीता का ज्ञान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिया था। जबकि संत रामपाल जी महाराज बताते हैं कि श्रीमद्भागवत गीता का ज्ञान श्रीकृष्ण ने नहीं दिया, बल्कि ब्रह्मा, विष्णु व शिव जी के पिता काल ब्रह्म ने श्रीकृष्ण में प्रेतवश प्रवेश होकर दिया। जिसका प्रमाण निम्न है –
- पहला प्रमाण :- महाभारत के युद्ध समाप्त होने के पश्चात युधिष्ठिर को इंद्रप्रस्थ की राजगद्दी पर बैठकर श्रीकृष्ण जी ने द्वारका जाने को कहा तो अर्जुन, श्रीकृष्ण जी से कहता है कि मै बुद्धि के दोष के कारण युद्ध के समय जो आपने गीता का ज्ञान दिया था वह भूल गया हूँ। अतः आप पुनः वहीं पवित्र गीता जी का ज्ञान सुनाने की कृपा करें। तब श्री कृष्ण जी ने कहा कि हे अर्जुन तू निश्चय ही बड़ा श्रद्धाहीन है। तेरी बुद्धि अच्छी नहीं है। ऐसे पवित्र ज्ञान को तू क्यों भूल गया? फिर स्वयं कहा कि अब उस पूरे गीता के ज्ञान को मैं नहीं कह सकता अर्थात् मुझे ज्ञान नहीं। तथा कहा कि उस समय तो मैंने योग युक्त होकर बोला था। विचारणीय विषय है कि यदि भगवान श्री कृष्ण जी युद्ध के समय योग युक्त हुए होते तो शान्ति समय में योग युक्त होना कठिन नहीं था। (प्रमाण संक्षिप्त महाभारत भाग-2 के पृष्ठ 667 तथा पुराने के पृष्ठ नं. 1531 में)
- दूसरा प्रमाण :- यह तो हम सभी जानते हैं कि श्रीकृष्ण जी की बहन सुभद्रा का विवाह अर्जुन से हुआ था जिससे श्रीकृष्ण जी नाते में अर्जुन के साले लगते थे। लेकिन अर्जुन गीता अध्याय 11 श्लोक 31 में पूछता है कि हे उग्र रूप वाले! आप कौन हो? जिसका उत्तर गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 11 श्लोक 32 में दिया कि मैं काल हूँ। विचारणीय विषय है कि क्या कोई अपने साले को नहीं जानता? इससे स्पष्ट है कि उस समय अर्जुन को काल दिखाई दिया था जो श्रीकृष्ण के शरीर से निकलकर अपने वास्तविक रूप में प्रकट हुआ था। गीता अध्याय 11 श्लोक 47 में भी स्पष्ट किया है कि यह मेरा स्वरूप है जिसे तेरे अतिरिक्त न तो किसी ने पहले देखा था, न कोई भविष्य में देख सकेगा।
- अन्य प्रमाण :- गीता अध्याय 10 श्लोक 9 से 11 में गीता ज्ञान दाता स्वयं कहता कि मैं शरीर के अंदर जीवात्मा रूप में अर्थात प्रेतवश बैठकर शास्त्रों का ज्ञान देता हूँ। तथा श्री विष्णु पुराण(गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित) के चतुर्थ अंश अध्याय 2 श्लोक 21 से 26 में पृष्ठ 168 और चतुर्थ अंश अध्याय 3 श्लोक 4 से 6 में पृष्ठ 173 में भी यहीं प्रमाण है।
उपरोक्त प्रमाणों से सिद्ध है कि श्रीकृष्ण जी ने श्रीमद्भागवत गीता का ज्ञान नहीं बोला, बल्कि श्रीकृष्ण के शरीर में काल (ज्योति निरंजन अर्थात् ब्रह्म) ने प्रेतवश प्रवेश होकर गीता का ज्ञान बोला था।
गीता के ज्ञान के दौरान अर्जुन ने जो विराट रूप देखा वह कौन था?
इस विषय में हिंदुओं का मानना हैं कि वह स्वयं श्रीकृष्ण थे। क्योंकि अर्जुन क्षत्रिय धर्म भूल रहा था इसलिए श्रीकृष्ण ने उसे अपना विराट रूप दिखाया था। इस विषय पर संत रामपाल जी महाराज कहते हैं कि श्री कृष्ण जी ने तो महाभारत युद्ध से पहले ही अपना विराट रूप कौरवों की सभा में दिखाया था जिसे सभा में बैठे योद्धाओं ने देखा था।
जिसका प्रमाण संक्षिप्त महाभारत गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित में प्रत्यक्ष है। फिर गीता अध्याय 11 श्लोक 31 में अर्जुन के प्रश्न करने पर गीता बोलने वाला प्रभु काल, अध्याय 11 श्लोक 47, 48 में कहता है कि ‘हे अर्जुन! यह मेरा वास्तविक रूप है, जिसे तेरे अतिरिक्त पहले किसी ने नहीं देखा था। इसे किसी दान, यज्ञ, तप आदि से नहीं देखा जा सकता है।’ क्योंकि यह स्वयं गीता अध्याय 4 श्लोक 9 में कहता है कि मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं तथा अध्याय 7 श्लोक 24, 25 में कहता है कि मैं अपनी योगमाया से छिपा रहता हूँ कभी किसी के सामने मनुष्य रूप में प्रकट नहीं होता।
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इन सभी प्रमाणों से स्पष्ट है कि गीता के ज्ञान के दौरान दिखाया गया विराट रूप श्रीकृष्ण जी का नहीं था, क्योंकि श्रीकृष्ण जी ने तो गीता ज्ञान से पहले ही कौरवों की सभा में अपना विराट रूप दिखा दिया था तो यह नहीं कह सकते थे कि मेरा यह विराट रूप तेरे पहले किसी ने नहीं देखा। तथा श्रीकृष्ण यह भी नहीं कहते कि मैं अपनी योग माया से छिपा रहता हूँ क्योंकि वह तो स्वयं सभी के समक्ष साक्षात थे। जिससे सिद्ध है कि गीता का ज्ञान काल ब्रह्म ने दिया है और इसी ने अपना विराट रूप दिखाया था।
क्या गीता ज्ञान दाता अजर अमर है?
हिन्दू धर्म गुरुओं का मानना है कि गीता का ज्ञान श्रीकृष्ण ने दिया जोकि अविनाशी हैं, उनका जन्म मृत्यु नहीं होता। आपने ऊपर प्रमाण सहित इस लेख में पढ़ा कि गीता का ज्ञान श्रीकृष्ण जी ने नहीं बल्कि काल ब्रह्म ने दिया है। संत रामपाल जी महाराज बताते हैं कि गीता का ज्ञान देने वाला प्रभु काल ब्रह्म भी अविनाशी नहीं है यह भी जन्म मृत्यु के चक्र में है। गीता अध्याय 2 श्लोक 12, अध्याय 4 श्लोक 5, 9 और अध्याय 10 श्लोक 2 में गीता ज्ञान बोलने वाला प्रभु स्वयं कहता है कि हे अर्जुन! तेरे और मेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं, तू नहीं जानता लेकिन मैं जानता हूँ। मेरे जन्म और कर्म दिव्य यानी अलौकिक हैं। मेरे जन्म को न देवता जानते हैं और न ही महर्षि जानते हैं क्योंकि ये सभी मेरे से ही उत्पन्न हुए हैं। इससे स्पष्ट है कि गीता ज्ञान दाता काल ब्रह्म भी नाशवान है।
व्रज का अर्थ जाना होता है या आना?
अब तक जितने भी गीता अनुवादक हुए हैं जैसे जयदयाल गोयन्दका जी, स्वामी प्रभुपाद जी, श्री रामसुखदास जी, स्वामी श्री ज्ञानानंद जी, श्री सुधांशु जी आदि सभी ने श्रीमद्भागवत अध्याय 18 श्लोक 66 में “व्रज” का अर्थ आना किया हुआ है। वहीं, संत रामपाल जी महाराज संस्कृत हिंदी शब्द कोश को दिखाते हुए बताते हैं कि व्रज शब्द का वास्तविक अर्थ जाना, चले जाना, प्रस्थान करना होता है। संत रामपाल जी महाराज ने बताया कि गीता अध्याय 18 श्लोक 66 में गीता ज्ञान दाता प्रभु ने अपने से अन्य परमेश्वर की शरण में जाने के लिए कहा है।
क्योंकि व्रज का अर्थ जाना है, परंतु संत रामपाल जी के अतिरिक्त सर्व अनुवादकों ने ‘‘व्रज’’ का अर्थ आना किया है। जबकि गीता अध्याय 18 के ही श्लोक 62 में स्पष्ट व ठीक अर्थ किया गया है जिसमे गीता बोलने वाला प्रभु काल ब्रह्म अपने से अन्य परमेश्वर यानि परम अक्षर ब्रह्म की शरण में जाने को कह रहा है। इससे स्पष्ट है कि श्लोक 66 में गीता ज्ञान दाता ब्रह्म ने अपनी शरण में आने को नहीं कहा है क्योंकि अर्जुन तो अध्याय 2 श्लोक 7 में स्वयं कहता है कि मैं आपकी शरण में हूँ। जब अर्जुन पहले ही शरण में था तो फिर अपनी शरण में आने को कहना यह न्याय संगत नहीं लगता।
क्या व्रत, उपवास करना चाहिए?
हिन्दू धर्म के लोगों द्वारा अनेकों व्रत, उपवास किये जाते हैं जिसमें नवरात्रि, छठ, एकादशी आदि व्रत प्रमुख रूप से मनाए जाते हैं और इन व्रतों से होने वाले लाभों को हिन्दू धर्मगुरुओं द्वारा बताया जाता है। जबकि सच्चाई इसके बिल्कुल उलट है। संत रामपाल जी महाराज पवित्र गीता से प्रमाणित करते हुए बताते हैं कि श्रीमद्भागवत गीता अध्याय 6 श्लोक 16 में व्रत करने को मना किया गया है।
न, अति, अश्नतः, तु, योगः, अस्ति, न, च, एकान्तम्, अनश्नतः,
न, च, अति, स्वप्नशीलस्य, जाग्रतः, न, एव, च, अर्जुन।।
- गीता अध्याय 6 श्लोक 16
भावार्थ : हे अर्जुन! उस पूर्ण परमात्मा को प्राप्त करने वाली भक्ति न तो एकान्त स्थान पर विशेष आसन या मुद्रा में बैठने से तथा न ही अत्यधिक खाने वाले की और न बिल्कुल न खाने वाले अर्थात् व्रत रखने वाले की तथा न ही बहुत सोने वाले की तथा न ही हठ करके अधिक जागने वाले की सिद्ध होती है। जिससे स्पष्ट है कि व्रत, उपवास रखना गीता विरुद्ध क्रिया है और गीता अध्याय 16 श्लोक 23 में कहा गया है कि शास्त्र विरुद्ध भक्ति क्रियाओं से न कोई लाभ होता, न सुख प्राप्त होता है और न ही सिद्धि प्राप्त होती।
मृत्यु उपरांत किये जाने वाली क्रियाओं को करना चाहिए या नहीं?
हिन्दू धर्म में किसी व्यक्ति के मृत्यु के बाद अनेकों कर्मकांड जैसे तेरहवीं, छमसी, बरखी, पिंड दान, श्राद्ध निकालना आदि किये जाते हैं और लोगों का मानना है कि इससे मरने वाले व्यक्ति की मुक्ति हो जाती है। और इन क्रियाओं को धर्म गुरुओं द्वारा मुख्य रूप से करने की प्रेरणा भी दी जाती है। जबकि संत रामपाल जी महाराज कहते हैं कि मृत्यु उपरांत कराई जाने वाली सभी क्रियाएँ भूत पूजाएं होती हैं जोकि लाभ नहीं देती बल्कि इनसे हानि होती है।
जिसका श्रीमद्भागवत गीता में कोई प्रमाण न होने के कारण व्यर्थ हैं। जिसके विषय में गीता अध्याय 9 श्लोक 25 में गीता ज्ञान बोलने वाला काल ब्रह्म कहता है कि देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं, पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं, भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं। यहीं प्रमाण संत गरीबदास जी महाराज देते हैं –
गरीब, भूत रमै सो भूत है, देव रमै सो देव।
राम रमै सो राम हैं, सुनो सकल सुर भेव।।
गीता में भक्ति करने के कौन से मंत्र बताये गए हैं?
अब तक हिन्दू धर्म के आचार्य, शंकराचार्य, धर्मगुरु आदि ने यहीं बताया है कि ओम नमः शिवाय, ओम नमो भगवते वासुदेवाय नमः, राम-राम, हरे कृष्णा आदि मंत्रों के जाप करने से साधक को मोक्ष प्राप्त होगा। जबकि संत रामपाल जी महाराज ने बताया कि ऐसे किसी भी मंत्र के जाप का संकेत गीता जी में नहीं हैं। बल्कि गीता अध्याय 8 श्लोक 13 में गीता ज्ञान दाता ब्रह्म कहता है कि मुझ ब्रह्म का ओम (ॐ) मंत्र है जो अंत समय तक इस ओम का जाप करता है वह मेरे से मिलने वाली गति यानि ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है। लेकिन ब्रह्मलोक तक गए सभी प्राणी और लोक पुनरावृत्ति यानि जन्म मृत्यु की चक्कर में आते हैं (गीता अध्याय 8 श्लोक 16)।
ओम्-तत्-सत् का भेद क्या है?
श्रीमद्भागवत गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में पूर्णब्रह्म यानि परम अक्षर ब्रह्म (जिसके विषय में गीता अध्याय 7 श्लोक 29, अध्याय 8 श्लोक 3 और अध्याय 15 श्लोक 4, 17 में संकेत किया है) की भक्ति के लिए तीन मंत्र ओम्-तत्-सत् का निर्देश किया गया है। जिसके विषय आज तक जितने भी धर्म गुरु, शंकराचार्य, मंडलेश्वर आदि हुए उन्होंने नहीं बताया। जबकि संत रामपाल जी महाराज ने बताया कि ओम तो सीधे ही स्पष्ट है कि यह ब्रह्म (काल) का मंत्र है (जिसका प्रमाण गीता अध्याय 8 श्लोक 13 में है) तथा तत् व सत् सांकेतिक मंत्र हैं जोकि क्रमशः परब्रह्म (अक्षर पुरुष) और पूर्ण ब्रह्म (परम अक्षर ब्रह्म) का है। जिसे केवल तत्वदर्शी संत ही बता सकता है।
तत्वदर्शी संत की पहचान क्या है?
पवित्र ग्रंथ गीता अध्याय 15 श्लोक 1-4, 16, 17 में तत्वदर्शी संत यानि पूर्णसंत की पहचान बताई गई है कि जो संत उल्टे लटके हुए संसार रूपी वृक्ष के सभी विभागों को वेदों अनुसार बता देगा कि मूल (जड़), तना, डार, शाखा तथा पत्ते आदि कौन हैं वह तत्वदर्शी संत होगा। जिसके विषय में कबीर परमेश्वर जी कहते हैं –
कबीर, अक्षर पुरुष एक पेड़ है, काल निरंजन/ क्षर पुरुष वा की डार |
तीन देव (ब्रह्मा विष्णु महेश) शाखा भये और पात-रूप संसार ||
कबीर, हमहीं अलख अल्लाह हैं, मूल रूप करतार।
अनंत कोटि ब्रह्मांड का, मैं ही सृजनहार।।
और संत गरीबदास जी महाराज पूर्णसंत (सतगुरु) की पहचान बताते हुए कहते हैं –
सतगुरु के लक्षण कहूं, मधूरे बैन विनोद।
चार वेद षट शास्त्रा, कहै अठारा बोध।।
अर्थात जो संत सभी धर्मों के सद्ग्रन्थों से प्रमाणित ज्ञान बताता है वहीं पूर्णसंत यानि सतगुरु (तत्वदर्शी संत होता है।
श्रीमद्भागवत गीता के और भी अद्भुत रहस्यों को जानने के लिए पुस्तक “गीता तेरा ज्ञान अमृत, पढ़ें या आप आज Sant Rampal Ji Maharaj App गूगल प्ले स्टोर से डाऊनलोड करें।
श्रीमद्भागवत गीता FAQ
उत्तर – पवित्र गीता का ज्ञान काल ब्रह्म ने श्रीकृष्ण में प्रेतवश प्रवेश होकर दिया।
उत्तर – पवित्र शास्त्र गीता में 18 अध्याय व 700 श्लोक हैं।
उत्तर – गीता अध्याय 6 श्लोक 16 में व्रत करना मना किया गया है इसलिए व्रत नहीं करना चाहिए।
उत्तर – हाँ, इसका प्रमाण गीता अध्याय 2 श्लोक 12, अध्याय 4 श्लोक 5,9 और अध्याय 10 श्लोक 2 में है।