उड़ीसा प्रांत का राजा इंद्रदमन चिंतित था क्योंकि श्री कृष्ण जी ने स्वपन में आकर स्थान बताते हुए कहा था कि इंद्रदमन समुद्र किनारे एक मंदिर बनवाओ जिसमें मूर्ति पूजा नहीं होनी चाहिये। सिर्फ मंदिर में एक संत नियुक्त करो जो दर्शकों को गीता जी का पाठ सुनाया करेगा। लेकिन प्रतिशोध के चलते समुंद्र जगन्नाथ पुरी के मंदिर को तोड़ने की अपनी ज़िद पर कायम था क्योंकि त्रेतायुग में समुंद्र ने राम को रास्ता नहीं दिया था। तब राम ने क्रोधवश
समुन्द्र को नष्ट करने के लिए डराया धमकाया था और उसी का बदला लेने के लिए अब समुंद्र बार बार जगन्नाथ पुरी मंदिर निर्माण में बाधक बन रहा था। राजा ने कृष्ण जी के आदेश अनुसार 5 बार मंदिर बनवाने की कोशिश की पर समुंद्र बड़े वेग से भीषण तूफान सरीखा उठकर आता और मंदिर को बहाकर ले जाता। राजा ने श्री कृष्ण से बार-बार मदद की विनती की लेकिन श्री कृष्ण जी भी समुंद्र को रोकने में असमर्थ रहे। धीरे धीरे राजा का खजाना भी खत्म हो गया और उसने मंदिर नही बनवाने का निर्णय लिया।
एक दिन कबीर परमात्मा संत रुप में राजा के पास आये और राजा को कहा की अब तुम मंदिर बनवाओ मैं तुम्हारे साथ हूं। अबकी बार समुंद्र मंदिर नहीं तोड़ेगा। राजा ने कहा की जब भगवान श्री कृष्ण जी समुंद्र को नहीं रोक पाये तो आप क्या कर पाओगे! कबीर परमेश्वर ने कहा की मुझे उस परमेश्वर की शक्ति प्राप्त है जिसने सर्व ब्रह्मांडो की रचना की है और वही समरथ प्रभु असंभव को भी संभव कर सकता है अन्य देवता नहीं। राजा ने कबीर परमात्मा की बात नहीं मानी तो कबीर जी ने अपना पता बताते हुए कहा की जब भी मंदिर बनाने का मन बने तो मेरे पास आ जाना। आखिर श्री कृष्ण जी ने राजा को स्वपन में आकर कहा की वह जो संत आया था उसकी शक्ति का कोई वार पार नहीं वह मंदिर बनवा देगा, उससे याचना करो, फिर इंद्रदमन ने कबीर जी से विनती की तो कबीर जी ने मंदिर बनवाना शुरु करवा दिया, समुंद्र भी मंदिर तोड़ने के लिए बड़े तीव्र वेग से उठकर आता और विवश होकर थम जाता क्योंकि कबीर परमात्मा अपना हाथ ऊपर को उठाते और अपनी शक्ति से समुंद्र को रोक देते।
फिर समुंद्र कबीर जी से याचना करता की मैं आपके समक्ष निर्बल हूं आप से नहीं जीत सकता लेकिन मैं अपना प्रतिशोध कैसे लूं, उपाय बताएं ? तब कबीर जी ने द्वारिका को डुबोकर गुस्सा शांत करने का विकल्प बताया क्योंकि द्वारिका खाली पड़ी थी। जिस स्थान पर कबीरजी ने समुंद्र को रोका था वहाँ आज भी एक गुम्बद यादगार के रूप में मौजूद है जहाँ वर्तमान में महंत रहता है।
इसी दौरान नाथ परंपरा के एक सिद्ध महात्मा आये और राजा से कहा की मूर्ति बिना मंदिर कैसा, आप चंदन की लकड़ी की मूर्ति बनाओ और मंदिर में स्थापित करो, राजा ने तीन मूर्तियां बनवाई जो बार बार टूट जाती थी। इस तरह तीन बार मूर्ति बनवाई और तीनों बार खंड हो गई तो राजा फिर चिंतित हुआ। सुबह जब राजा दरबार में पहुँचा तो कबीर परमात्मा एक मूर्तिकार के रुप मे आये और राजा से कहा कि मुझे 60 साल का अनुभव है, मैं मूर्तियां बनाउंगा तो नहीं टूटेंगीं। मुझे एक कमरा दे दो जिसमें मैं मूर्तियां बनाउंगा और जब तक मूर्तियां नहीं बन जाती कोई भी कमरा ना खोले। राजा ने वही किया, उधर कुछ दिन बाद नाथ जी फिर आए और उनके पूछने पर राजा ने पूरा वृतांत बताया तो नाथ जी ने कहा की पिछले 10-12 दिन से वह कारीगर मूर्ति बना रहा है, कहीं गलत मूर्तियां ना बना दे। हमें मूर्तियां को देखना चाहिये, यह सोचकर कमरे में दाखिल हुए तो कबीर परमात्मा गायब हो गये, तीनों मूर्तियां बन चुकी थी लेकिन बीच में ही व्यवधान उत्पन्न होने से तीनों मूर्तियों के हाथ और पांव की ऊँगलियां नही बनी थीं। इस कारण मंदिर में बगैर ऊँगलियों वाली मूर्तियां ही रखी गईं।
कुछ समय उपरांत जगन्नाथ पुरी मंदिर में मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा करने के लिए कुछ पंडित मंदिर में पहुँचे। मंदिर के द्वार की ओर मुंह करके कबीर परमात्मा खड़े थे। पंडित ने कबीर परमात्मा को अछूत कहते हुए धक्का दे दिया और मंदिर में प्रवेश किया। अंदर जाकर देखा तो हर मूर्ति कबीर परमात्मा के स्वरुप मे तब्दील हो गई थी और यह देखकर पंडित हैरान थे। बाद मे उस पंडित को कोढ़ हो गया जिसने कबीर परमात्मा को धक्का देकर अछूत कहा था। लेकिन दयालु कबीर परमात्मा जी ने बाद में उसे ठीक कर दिया। उसके बाद जगन्नाथ पुरी मंदिर में छुआछात नहीं हुई।
कबीर परमात्मा ने यहाँ सिद्ध करके बताया की वह समर्थ है और ब्रह्मा, विष्णु और महेश से ऊपर की शक्ति है। कबीर परमात्मा चारों युग में सतलोक से गति करके आते हैं सतयुग में सतसुकृत नाम से, त्रेता में मुनिंद्र नाम से, द्वापर में करुणामय नाम से, और कलयुग में अपने असली नाम कबीर (कविर्देव) नाम से आते हैं और यही सत्य वर्तमान मे भी संत रामपालजी महाराज ने बताया है की आत्मकल्याण तो केवल पवित्र गीता जी व पवित्र वेदों मे वर्णित तथा परमेश्वर कबीर के द्वारा दिये गये तत्वज्ञान के अनुसार भक्ति साधना करने मात्र से ही सम्भव है अन्यथा शास्त्र विरुद्ध होने से मानव जीवन व्यर्थ हो जाएगा।
श्री जगन्नाथ के मन्दिर में प्रभु के आदेशानुसार पवित्र गीता जी के ज्ञान की महिमा का गुणगान होना ही श्रेयकर है तथा जैसा श्रीमद्भगवत गीता जी में भक्ति विधि है उसी प्रकार साधना करने मात्रा से ही आत्म कल्याण संभव है, अन्यथा जगन्नाथ जी के दर्शन मात्र या खिचड़ी प्रसाद खाने मात्र से कोई लाभ नहीं क्योंकि यह क्रिया श्री गीता जी में वर्णित न होने से शास्त्रविरुद्ध हुई, जो अध्याय 16 मंत्र 23,24 में प्रमाण है।[embedyt] https://www.youtube.com/embed?listType=playlist&list=PLBCA8E70EC577E963&layout=gallery[/embedyt]
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