July 30, 2025

Jagannath Puri Rath Yatra 2025 [Hindi]: श्री जगन्नाथ के मन्दिर में छुआछूत क्यों नहीं है?

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Last Updated on 27 June 2025, 11:44 AM IST | Jagannath Puri Rath Yatra 2025 Hindi: भारत के सुप्रसिद्ध तीर्थधाम जगन्नाथपुरी में प्रति वर्ष आषाढ़ माह की द्वितीय शुक्ल पक्ष में रथ यात्रा आयोजित की जाती है।  आज पाठक गण जानेंगे “जगन्नाथ धाम रथ यात्रा” के बारे में। साथ में जानेंगे जगन्नाथ धाम से जुड़ी बहुत सी ऐतिहासिक घटनाओं के बारे में।

जगन्नाथ धाम रथ यात्रा विशेष 2025 [Hindi]: मुख्य बिंदु

  • 27 जून से प्रारंभ हो रही है जगन्नाथ रथयात्रा।
  • जगन्नाथ रथ यात्रा पर इतिहास के पृष्ठों से विशेष विवेचन।
  • आखिर क्यों हैं जगन्नाथ पुरी की मूर्तियां अधूरी?
  • किस प्रकार हुई जगन्नाथ मंदिर में छुआछूत खत्म?

Jagannath Puri Rath Yatra 2025 Date

यह यात्रा भारत के उड़ीसा राज्य के पुरी क्षेत्र जिसे पुरुषोत्तम पुरी, शंख क्षेत्र, श्रीक्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है, में निकाली जाती है। हिंदी पञ्चाङ्ग के अनुरूप आषाढ़ माह, शुक्ल पक्ष, द्वितीया (26 जून) से प्रारंभ होकर जगन्नाथ रथ यात्रा 5 जुलाई को समाप्त होगी।

क्यों निकाली जाती है जगन्नाथ यात्रा (Jagannath Puri Rath Yatra 2025)

मान्यता है कि इस दिन जगन्नाथ भगवान मंदिर से निकलकर गुंडिचा के मंदिर में विश्राम करने जाते हैं तथा देवशयनी एकादशी के दिन वापस लौटते हैं। लोकवेद के अनुसार भगवान कृष्ण अपने भाई बलराम और बहन सुभद्रा के साथ भ्रमण करने निकलते हैं। इस दिन लोग बहुतायत में दर्शन के लिए एकत्रित भी होते हैं तथा संकट के निवारण की इच्छा भी रखते हैं। हालांकि यह सभी कुछ तत्वज्ञान के अभाव का नतीजा है। सबसे आगे बलभद्र जी की मूर्ति का रथ चलता है जिसे तालध्वज कहा जाता है, फिर सुभद्रा जी की मूर्ति का रथ होता है जिसे पद्म रथ कहते हैं तथा अंत में कृष्ण जी की मूर्ति का रथ होता है जिसे नंदी घोष कहते हैं।

मान्यता के अनुसार गुंडिचा मंदिर भगवान कृष्ण की मौसी का घर है जहाँ पांचवे दिन लक्ष्मी जी ढूंढते हुए आती हैं जिन्हें देखकर कृष्ण जी दरवाजा बंद कर लेते हैं इस कारण क्रोध में आकर लक्ष्मी जी रथ का पहिया तोड़ देती हैं तथा ‘ हेरा गोहिरी साही पूरी’ नामक लक्ष्मी मंदिर में वापस लौट जाती हैं। बाद में लक्ष्मी जी को मनाने का भी रिवाज है। स्वयं विचार करें इतने शक्तिशाली देव विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण, क्या उन्हें कहीं भी जानें के लिए सहारे की आवश्यकता है? क्या लक्ष्मी जी सदैव विष्णु जी के साथ नहीं रहतीं? क्या यह रिवाज रंगमंच की प्रस्तुति की भांति वेदों और गीता के ज्ञान को धता बताकर कोरा अज्ञान नहीं है? वास्तव में ये कथा भी पूर्ण सत्य नहीं है। आज हम जानेंगे जगन्नाथ पुरी की रथयात्रा का इतिहास।

Jagannath Puri Rath Yatra 2025 [Hindi]: जगन्नाथ सृजन की कथा

उड़ीसा प्रान्त में एक राजा इन्द्रदमन का राज्य था। वे श्री कृष्ण के एकमेव अनुरागी थे। राजा को कृष्ण जी ने स्वप्न में साक्षात्कार दिया जिसमें श्रीकृष्ण ने एक मंदिर बनाने और उसमें गीता उपदेश की इच्छा व्यक्त की। राजा इन्द्रदमन ने आदेश अनुसार मंदिर बनाया लेकिन समुद्र ने हर बार मंदिर तोड़ने की प्रक्रिया जारी रखी।

इस प्रकार 5 बार तक देव सदन टूट गया। राजा हताश होकर बैठ गए और पुनः मंदिर न बनवाने का निर्णय लिया। राज कोष रिक्त हो चला था। कबीर परमेश्वर ने ज्योति निरंजन (काल/ ब्रह्मा, विष्णु, महेश के पिता) को मंदिर निर्माण के लिए वचन दिया था। वचनानुसार कविर्देव राजा इन्द्रदमन के समक्ष सामान्य रूप में प्रकट हुए एवं मंदिर बनाने का आग्रह किया किन्तु राजा ने कृष्णजी को सर्वोपरि कहते हुए मना किया कि जब कृष्ण जी ही अम्बुज को नहीं रोक पाए तो कौन रोक सकता है भला।

Jagannath Puri Rath Yatra in Hindi | यह सुनकर कबीर साहेब अपने रहने का स्थान बताकर वहां से प्रस्थान कर गए। राजा को स्वप्न में पुनः श्री कृष्ण का साक्षात्कार हुआ और श्री कृष्ण ने कहा कि वे सन्त साधारण सन्त नहीं हैं तथा अनन्य भक्ति के स्वामी हैं। आदेश पाकर राजा इन्द्रदमन ने कविर्देव से पुनः प्रार्थना की। कविर्देव आये और एक चबूतरे का निर्माण करवाया जिस पर बैठकर उन्होंने भक्ति की। मंदिर बनते ही पुनः समुद्र का आगमन हुआ किंतु कबीर परमेश्वर ने उसे हाथ उठाकर रोक दिया।

समुद्र क्यों नहीं बनने देना चाहता था देवालय?

कबीर साहेब से समुद्र ने आगे बढ़ने की विनती की किन्तु कबीर साहेब ने उसे वहीं रोका और दूर जाने के लिए कहा। समुद्र अपमान से भरा हुआ था क्योंकि श्रीराम ने धनुष उठाकर त्रेतायुग में उसे हटने के लिए कहा था। तब कबीर साहेब ने उससे कहा कि आप मंदिर को नही तोड़ पाओगे। समुद्र देव के प्रार्थना करने पर कबीर साहेब ने उसे अपना बदला द्वारिका को डुबोकर लेने के लिए कहा। तब समुद्र वहा से पीछे हट गया और द्वारिका जाकर उसने विध्वंस मचाया।

मंदिर निर्माण कार्य के समय एक नाथपंथी सिद्ध वहां आये और मंदिर में मूर्ति की स्थापना का आदेश दिया। राजा इन्द्रदमन ने प्रार्थना की और उन्हें अपने स्वप्न के आदेश से अवगत कराया। सिद्ध ने स्वप्न को नकारते हुए मूर्ति रखने का आदेश दिया। राजा ने श्राप के भयवश मूर्तियों के निर्माण का आदेश दिया। किन्तु जैसे ही मूर्ति बनकर तैयार होतीं स्वतः ही खंडित होकर गिरने लगतीं।

■ Read in English: Jagannath Puri Rath Yatra: Know the Real Story of Jagannath

राजा पुनः संकट में निराश हो चले। तब कविर्देव पुनः एक जीर्ण शरीर धारी मूर्तिकार के रूप में राजा के समक्ष प्रकट हुए। राजा से अनुमति लेकर एक बंद कमरे में मूर्तियों का निर्माण करने लगे। किंतु यह शर्त रखी कि कोई भी मूर्ति बनने के पहले उनका ध्यान भंग नहीं करेगा। बारह दिनों के पश्चात नाथपंथी सिद्ध महात्मा पुनः आये और मूर्तियों के विषय मे पूछा। बंद कमरे में बारह दिनों से मूर्ति का निर्माण जानकर उन्होंने जबरजस्ती पट खुलवाए और वहां तीन मूर्तियां, जैसे निर्णय लिया गया था कृष्ण, बलराम, सुभद्रा की, पाई गईं। लेकिन उनके हाथ और पैर के पंजे नहीं थे और वृद्ध रूप में कविर्देव भी अंतर्ध्यान हो गए थे। कृष्ण की वांछा जानकर और नाथपंथी सिद्ध की हठ से मूर्तियों की ज्यों की त्यों स्थापना कर दी गई।

■ यह भी पढें: जगन्नाथ मन्दिर का अनसुना रहस्य 

आज भी मंदिर जाने वाले श्रद्धालु और पंडित इस सत्य से अनजान हैं वे हर प्रश्न को जगन्नाथ की लीला वाक्यांश से उत्तर देते हैं। अपने मन से बनाई गई कथा कहानियों का वास्ता देते हैं जिनका कोई शास्त्र सम्मत प्रमाण भी नहीं है और न ही सत्य है। वहाँ पर ऐसे प्रमाण आज भी हैं, जिस पत्थर (चबूतरा) पर बैठ कर कबीर परमेश्वर जी ने मन्दिर को बचाने के लिए समुद्र को रोका था वह आज भी विद्यमान है। उसके ऊपर एक यादगार रूप में गुंबज बना रखा है। वहाँ पर बहुत पुरातन महन्त (रखवाला) परम्परा से एक आश्रम भी विद्यमान है।

Jagannath Puri Rath Yatra 2025 [Hindi] : श्री जगन्नाथ के मन्दिर में छुआछूत है या नहीं?

ये सत्य है इसके पीछे में एक कथा की भूमिका है। श्री जगन्नाथ पुरी में एक पांडे ने कबीर साहेब को शूद्र मानकर धक्का मार दिया। कुछ समय बाद उस पांडे को कुष्ठ रोग के लक्षण दिखाई दिए। उपचार करने पर भी रोग बढ़ता गया। पांडे ने श्री जगन्नाथ जी समेत समस्त पूजा अर्चना की लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। एक रात स्वप्न में श्री कृष्ण जी ने दर्शन देकर पांडे को एक संत को धक्का देने की घटना की याद दिलाकर उन संत के चरण धोकर चरणामृत ग्रहण करने का निर्देश देकर कहा संत के क्षमा करने पर ही कुष्ठ रोग ठीक हो सकता है।

पांडे प्रातः काल ही अपने सहयोगियों के साथ शूद्र रूप में विराजमान कबीर साहेब के पास पहुंचा तो प्रभु ऐसा कह कर कि मै अछूत हूँ, मुझसे दूर रहना अन्यथा अपवित्र हो जाओगे उठकर चल दिए। पांडा दौड़ कर पास पहुंचा तो परमेश्वर कबीर और आगे चले गए। पांडे ने रोकर करुणा के साथ क्षमा याचना करते हुए पुकार लगाई। प्रभु द्रवित होकर रुक गए। पांडे ने एक पृथ्वी पर आसान बिछाकर परमात्मा से आदरपूर्वक बैठने का निवेदन किया। प्रभु विराजमान हुए और पांडे ने प्रभु कबीर के चरण धोकर चरणामृत को पात्र में श्रद्धा पूर्वक लिया।

परमेश्वर कबीर साहेब ने चालीस दिन तक चरणामृत को पीने और जल में मिलाकर नहाने का निर्देश देकर चालीसवें दिन पूर्ण रूप से रोग रहित होने का आशीर्वाद दिया। परमात्मा कबीर ने पांडे और अन्य उपस्थित लोगों को छुआछूत से बचने के लिए आगाह किया। सभी ने भविष्य में ऐसा न करने का वचन दिया। पांडे ने श्रद्धा पूर्वक चालीस दिनों तक चरणामृत पान किया और जल स्नान किया और वह पूर्ण रूप से कुष्ठ रोग मुक्त हो गया। श्री जगन्नाथ जी के मंदिर में आज तक छुआछूत की कुप्रथा नहीं है। विचार करें कि यह कुप्रथा पूरे समाज से क्यों नहीं मिटनी चाहिए? आज तक पूरे विश्व में छुआछूत को केवल सन्त रामपाल जी महाराज ने तत्वज्ञान के माध्यम से खत्म किया है।

Jagannath Puri Rath Yatra 2025: कबीर साहेब के परम शिष्य की समाधि जगन्नाथ पुरी में

गीता अध्याय 17, श्लोक 23 में तीन नामों का उद्धरण यथा ओम, तत, सत (सांकेतिक- प्रथम नाम , सतनाम और सारनाम) है। कबीर साहेब ने तत्वदर्शी सन्त की भूमिका की थी तथा अपने शिष्य धर्मदास को सारनाम जो कि मोक्ष मंत्र है को गुप्त रखने के आदेश दिए थे। किंतु पुत्रमोह में धर्मदास जी सारनाम अपने पुत्र को बताना चाहते थे और तब उन्होंने स्वयं कबीर साहेब से स्थिति के वश से बाहर होने की प्रार्थना की। कबीर साहेब ने परम शिष्य की इच्छानुरूप धर्मदास जी को जिंदा समाधि दी। श्री धर्मदास जी व उनकी पत्नी भक्तमति आमिनी देवी ने जहाँ शरीर त्यागा था वहाँ आज भी दोनों की समाधियाँ साथ-साथ बनी हुई हैं।

जगन्नाथ पुरी में पुजारी की अग्नि से रक्षा

एक समय दिल्ली के राजा सिकन्दर लोदी काशी नरेश वीर सिंह बघेल के राजभवन आये। कबीर साहेब, रैदास जी के साथ स्वाभाविक रूप से राजभवन में प्रकट हुए। कबीर साहेब ने आग्रह पर आसन ग्रहण किया। अचानक वे खड़े होकर अपने कमंडल से जल लेकर अपने चरणों पर डालने लगे। तब उत्सुकता वश दोनों राजन इसका कारण पूछ बैठे और कबीर साहेब ने बताया कि जगन्नाथपुरी में रामसहाय पुजारी के पैर गर्म खिचड़ी से जल गए हैं और उसके पैर की ज्वलन को शांत करने के लिए ऐसा किया। विश्वास न होने पर ऊंटों पर तुरन्त सवार भेजे गए। रामसहाय के अतिरिक्त अन्य कई लोगों ने इस तथ्य की पुष्टि की और बताया कि कबीर साहेब तो प्रतिदिन यहां सत्संग भी करते हैं। इस प्रकार समाचार की पुष्टि होने पर दोनों राजाओं ने कबीर परमात्मा के चरणों में शरण ग्रहण की तथा अविश्वास के लिए क्षमा याचना की। इस घटना का प्रमाण आदरणीय सन्त गरीबदासजी महाराज ने अपनी वाणी में दिया है- “पंडा पांव बुझाया सतगुरु जगन्नाथ की बात है”

Jagannath Puri Rath Yatra 2025 [Hindi] : मूर्तिपूजा उत्तम या अनुत्तम?

मूर्तिपूजा शास्त्रानुसार विचार करने पर अनुत्तम ही मानी जायेगी। वेदों का सार कही जाने वाली भागवत गीता में किसी भी स्थान पर मूर्तिपूजा, तीर्थ भ्रमण या रथ यात्रा जैसी भक्ति विधि का उल्लेख नहीं है। कुतर्क ये दिया जाता है कि यदि उल्लेख नहीं है तो वर्जित भी नहीं है। इसका उत्तर गीता अध्याय 16 श्लोक 23 और 24 में है जिसमें कहा गया है कि कर्तव्य और अकर्तव्य की दशा में शास्त्रों द्वारा मार्ग दर्शित पथ का अनुसरण करना श्रेयस्कर है तथा शास्त्र विरुद्ध साधना करने वाले किसी गति को प्राप्त नहीं होते। मूर्तिपूजा या रथयात्रा काल्पनिक और मनगढ़ंत उपासना की विधियां हैं जिनका भक्ति और मोक्ष से कोई तारतम्य नहीं है।

क्या श्री कृष्ण जी बाध्य हैं कि जब तक उन्हें घुमाया न जाये वे स्वयं भ्रमण नहीं कर सकते? नहीं। ना तो कृष्ण बाध्य हैं और न ही इस तरह की भक्ति विधि के समर्थन में हैं क्योंकि उन्होंने स्वयं राजा इन्द्रदमन से मंदिर में कोई मूर्ति न रखने एवं ज्ञान उपदेश के लिए गीता पाठ का आदेश दिया था। अतएव उचित है कि गीता अध्याय 4 के श्लोक 34 में तत्वदर्शी सन्त की खोज करने और उनसे ज्ञान उपदेश लेने के आदेश का पालन किया जाए और अपना मानव जन्म सफल बनाया जाए।

तत्वदर्शी सन्त की पहचान भगवत गीता अध्याय 15 श्लोक 1 में होती है जिसमें उल्टे लटके संसार रूपी वृक्ष के जड़, तना, शाखा, टहनियां और पत्तों के भेद हैं जो क्रमशः जड़ परम् अक्षर ब्रह्म कविर्देव, तना अक्षर ब्रह्म, शाखा क्षर ब्रह्म/ ज्योति निरंजन, तीन सह शाखाएं ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा पूर्णरूप संसार का प्रतीक हैं। ऐसी स्थिति में विलंब न करते हुए तत्वदर्शी सन्त की शरण ग्रहण करनी चाहिए जो गीता अध्याय 17 के श्लोक 23 के अनुसार तीन बार में नाम दीक्षा प्रक्रिया पूर्ण करेगा। ज्ञान होने के पश्चात भी तत्वदर्शी सन्त की शरण ग्रहण न करना अतिशय पाप का भागी बनाएगा। गीता का तत्वज्ञान पढ़ने के लिए डाउनलोड करें गीता तेरा ज्ञान अमृत

कैसे पाए भवसागर से पार?

एक सीधा सा विचार है कि कृष्ण जी ने राजा इन्द्रदमन से स्वप्न में मंदिर बनवाने और उसमें गीता के उपदेश की इच्छा व्यक्त की थी। किन्तु आज सबकुछ कर्मकांड में बदल चुका है। हमें नकली धर्मगुरुओं द्वारा लंबे समय तक मूर्ख बनाया गया जिसका नतीजा यह हुआ कि आज हम शिक्षित होकर भी अपने धर्मग्रंथों को खोलकर प्रमाण देखने के लिए तैयार नहीं हैं। गीता के अध्याय 4 के श्लोक 34 में तत्वदर्शी सन्तों की शरण मे जाने एवं उपदेश प्राप्त करने के लिए कहा गया है।

गीता के अध्याय 18 के श्लोक 66 में अन्य परमेश्वर की शरण मे जाने के लिए कहा है जहाँ जाने के बाद जन्म और मरण नहीं होता। गीता ज्ञानदाता स्वयं जन्म और मृत्यु से परे नहीं है इसका खुलासा भी गीता के अध्याय 8 श्लोक 16 में हो जाता है। अब बुद्धिमत्ता का परिचय देते हुए पूर्ण परमेश्वर कविर्देव (कबीर साहेब) के प्रतिनिधि पूर्ण तत्वदर्शी सन्त रामपाल जी महाराज से नाम दीक्षा लेकर शास्त्रानुसार मंत्र जाप लेकर मोक्ष प्राप्त कीजिए।

मानुष जन्म दुर्लभ है, मिले न बारम्बार |

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