भक्तिकाल के निर्गुण सन्त परम्परा के पुरोधा के रूप में प्रसिद्ध कबीर साहेब कोई आम सन्त नहीं थे। कबीर साहेब स्वयं परमेश्वर हैं जो लीला हेतु सशरीर इस पृथ्वी पर आए और सशरीर चले गए। कबीर साहेब के सशरीर जाने के समय के तो साक्ष्य आज भी पुस्तकों में उपलब्ध हैं तथा इतिहास गवाह है किंतु कबीर साहेब के सशरीर सतलोक आने के प्रत्यक्ष गवाहों की जानकारी के अभाव में मनगढ़ंत कहानियाँ बनाई गईं। वास्तव में वेदों में परमेश्वर के लिखे गुणों के अनुसार कबीर सतलोक से सीधे लहरतारा तालाब पर कमल के पुष्प पर विराजमान हुए थे।
कबीर साहेब का जन्म माता से नहीं हुआ
कबीर साहेब जी का माता से जन्म नहीं हुआ था। उनके कोई माता-पिता भी नहीं थे स्वयं कबीर साहेब जी ने कबीर सागर के अगम निगम बोध में कहा है :
मात पिता मेरे कछु नाहीं, ना मेरे घर दासी |
जुलहे का सुत आन कहाया, जगत करे मेरी हांसी ||
तथा कबीर सागर अध्याय “ज्ञान बोध” (बोध सागर) में भी यही प्रमाण है
नहीं बाप ना माता जाए, अविगत से हम चल आए |
कलयुग में काशी चल आए, जब हमरे तुम दर्शन पाए ||
भग की राह हम नहीं आए, जन्म मरण में नहीं समाए | त्रिगुण पांच तत्व हमरे नांही, इच्छा रूपी देह हम आहीं ||
कौन थे नीरू नीमा
नीरू-नीमा जुलाहे दम्पत्ति थे। वे निःसंतान थे। नीरू और नीमा ब्राह्मण दम्पत्ति थे जिनका मुसलमानों द्वारा जबरन धर्म परिवर्तन कराया गया था। नीरू का नाम गौरीशंकर था एवं नीमा का नाम सरस्वती था। गौरी शंकर ब्राह्मण भगवान शिव का उपासक था तथा शिव पुराण की कथा करके भगवान शिव की महिमा का गुणगान किया करता था। गौरी शंकर निर्लोभी था। कथा करने से जो धन प्राप्त होता था, उसे धर्म में ही लगाया करता था। जो व्यक्ति कथा कराते थे तथा सुनते थे, सर्व गौरी शंकर ब्राह्मण के त्याग की प्रशंसा करते थे। जिस कारण से पूरी काशी में गौरी शंकर की प्रसिद्धि हो रही थी। अन्य स्वार्थी ब्राह्मणों का कथा करके धन इकत्रित करने का धंधा बन्द हो गया। इस कारण से वे ब्राह्मण उस गौरी शंकर ब्राह्मण से ईर्ष्या रखते थे।
इस बात का पता मुसलमानों को लगा कि एक गौरी शंकर ब्राह्मण काशी में हिन्दू धर्म के प्रचार को जोर-शोर से कर रहा है। इसको किस तरह बन्द करें। मुसलमानों को पता चला कि काशी के सर्व ब्राह्मण गौरी शंकर से ईर्ष्या रखते हैं। इस बात का लाभ मुसलमानों ने उनका धर्म परिवर्तन करके उठाया। पुरूष का नाम नूरअली उर्फ नीरू तथा स्त्री का नाम नियामत उर्फ नीमा रखा गया। ब्राह्मणों ने समाज से बहिष्कृत कर दिया। धर्म परिवर्तित होने के कारण उनके लिए रोजगार की समस्या आ खड़ी हुई जिसका निराकरण करते हुए दोनों पति पत्नी ने जुलाहे का कार्य प्रारम्भ कर दिया।
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विवाह को कई वर्ष बीत गए थे। उनको कोई सन्तान नहीं हुई। दोनों पति-पत्नी ने बच्चे होने के लिए बहुत अनुष्ठान किए, साधु सन्तों का आशीर्वाद भी लिया, परन्तु कोई सन्तान नहीं हुई। हिन्दुओं द्वारा उन दोनों का गंगा नदी में स्नान करना बन्द कर दिया गया था। किन्तु हृदय से वे दोनों ही अब तक हिन्दू धर्म की साधना ही करते रहे। गंगा में नहाने से रोक लगने पर उन्होंने उस तालाब में नहाना प्रारम्भ कर दिया जो उनके निवास स्थान से लगभग चार कि.मी. दूर था। यह एक लहरतारा नामक सरोवर था जिस में गंगा नदी का ही जल लहरों के द्वारा नीची पटरी के ऊपर से उछल कर आता था। इसलिए उस सरोवर का नाम लहरतारा पड़ा। उस तालाब में बड़े-बड़े कमल के फूल उगे हुए थे।
सतलोक से सशरीर अवतरित हुए परमेश्वर कबीर
वेदों में प्रमाण है कि परमेश्वर कबीर अपनी आत्माओं को ज्ञान समझाने के उद्देश्य से पृथ्वी पर अवतरित होते हैं। पूर्ण परमेश्वर का जन्म माँ से नहीं होता। वे सशरीर स्वयं अवतरित होते हैं एवं उनकी मृत्यु भी नहीं होती। वे सशरीर सतलोक जाते हैं। परमेश्वर कबीर साहेब ज्येष्ठ मास की शुक्ल पूर्णमासी विक्रमी संवत् 1455 (सन् 1398 को आकाश से आकर लहरतारा तालाब के ऊपर विराजमान हुए। इस घटना के प्रत्यक्षदृष्टा ऋषि अष्टानांद जी थे। ऋषि अष्टानंद जी रामानंद जी के शिष्य थे जो अपनी दैनिक साधना के लिए लहरतारा तालाब के पास एकांत में बैठे हुए थे। उन्होंने आकाश से एक तेज प्रकाश का गोला उतरते देखा जिससे उनकी आंखें चौंधिया गईं। धीरे धीरे वह प्रकाश कमल के पुष्प पर सिमट गया।
नहीं थे कबीर साहेब किसी ब्राह्मणी के पुत्र
कबीर साहेब के सशरीर सतलोक जाने के तथ्य को कोई नहीं झुठला सका। किन्तु परमेश्वर कबीर साहेब के अवतरण को अनेकों झूठी कथाओं के माध्यम से पेश किया गया है। एक आम असत्य कथा है कि कबीर साहेब किसी विधवा ब्राह्मणी के पुत्र थे जिसे वह लोकलाज के डर से लहरतारा तालाब पर छोड़ गई थी। इसका खंडन इस प्रकार है कि सर्वप्रथम तो उस समय स्त्रियां पति के साथ सती हो जाया करती थीं और जो नहीं भी होती थीं उनकी समाज में बुरी स्थिति थी ऐसे में किसी विधवा स्त्री के व्यभिचार की बात निर्मूल है।
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अन्य दंत कथा के रूप में कहा जाता है कि किसी ऋषि महर्षि ने किसी विधवा ब्राह्मणी को पुत्रवती होने का आशीर्वाद दिया किन्तु लोकलाज के डर से उसने पुत्र को तालाब में छोड़ दिया। श्वेत वस्त्र धारण किए हुए विधवा स्त्रियाँ अलग ही दिख जाती थीं क्योंकि पूरे समाज से ही उन्हें दूर रहना होता था। दूसरा तर्क यह है कि ऋषि मुनि उस समय शक्तियुक्त एवं ज्ञानी होते थे। आंखें बंद करके आशीर्वाद देने जैसी बात यहाँ भी निर्मूल सिद्ध होती है।
नीरू-नीमा को मिले परमेश्वर कबीर
नीरू नीमा को परमेश्वर कबीर साहेब के मुँह बोले माता पिता कहलाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। नीरू-नीमा भले ही मुसलमान बन गए थे, परन्तु अपने हृदय से साधना भगवान शंकर जी की ही करते थे तथा प्रतिदिन सवेरे सूर्योदय से पूर्व लहरतारा तालाब में स्नान करने जाते थे। ज्येष्ठ मास की शुक्ल पूर्णमासी विक्रमी संवत् 1455 (सन् 1398) सोमवार को भी ब्रह्ममुहूर्त (ब्रह्म मुहूर्त का समय सूर्योदय से लगभग डेढ़ घण्टा पहले होता है) में स्नान करने के लिए जा रहे थे। नीमा अक्सर परमात्मा से प्रार्थना करती रहती कि उसे भी एक सन्तान मिल जाती। तालाब पहुँचते ही जल में प्रथम नीमा ने स्नान किया। जब उसने स्नान कर लिया तो उसे कमल के पुष्प पर एक बालक की छवि दिखाई दी। नीमा ने अपने पति नीरू को आवाज़ लगाई और कमल के पुष्प पर शिशु होने की बात कही। इस पर नीरू ने झुँझलाकर कहा कि नीमा सन्तान की इच्छा में बावली हो गई है अब उसे हर जगह शिशु दिखाई दे रहे हैं।
नीमा लगातार अपनी बात दोहराती रही और उसने नीरू से कहा कि वो देखो बच्चा डूब जाएगा। नीरू ने जब उस ओर दृष्टि की तो सचमुच एक शिशु को देखा और तुरन्त कमल के पुष्प से उठाकर नीमा को थमा दिया।
परमेश्वर कबीर की सुंदर छवि देखकर नीमा मुग्ध हो गई एवं बालक को सीने से लगाया। जिस परमेश्वर की एक झलक को पाने के लिए लोग ना जाने कितनी साधना और तपस्या करते हैं उस परमेश्वर को नीमा ने सीने से लगाकर अवश्य ही अत्यंत आनंद का अनुभव किया होगा। आदरणीय सन्त गरीबदास जी ने इसका वर्णन किया है-
गरीब, कोटि किरण शशि भान सुधि, आसन अधर बिमान |
परसत पूरणब्रह्म कूं, शीतल पिंडरू प्राण ||
गरीब, गोद लिया मुख चूंबि करि, हेम रूप झलकंत | जगर मगर काया करै, दमकैं पदम अनंत ||
परमेश्वर कबीर ने चुने अपने पालक माता पिता
नीमा ने जब बालक रूप में परमेश्वर कबीर को आपमे घर ले चलने की बात कही तो नीरू ने लोकलाज के डर से मना किया। तब परमेश्वर कबीर ने स्वयं उसी स्थिति में अपने मुख कमल से कहा कि उसे कोई हानि नहीं होगी वह उसे अपने घर ले चले। इतने छोटे बालक को बोलते देख नीरू अचंभित रह गया और कुछ डरा भी। वह बालक रूप में परमेश्वर कबीर को घर ले आए तथा अपने पुत्रवत् पालन-पोषण किया।
नीरू और नीमा का पूर्व जन्म
कबीर साहेब उस पुण्यकर्मी दम्पत्ति को यों ही नहीं मिल गए बल्कि परमेश्वर कबीर ने उन्हें अपने पालक के रूप में चुना था। वेदों में वर्णन है कि परमेश्वर कबीर प्रत्येक युग में आते हैं। परमेश्वर सतयुग में सत सुकृत नाम से, त्रेतायुग में मुनींद्र नाम से, द्वापरयुग में करुणामयी नाम से और कलियुग में अपने वास्तविक नाम कबीर से आये। द्वापरयुग में करुणामयी नाम से आए कबीर साहेब के शिष्य हुए सुपच सुदर्शन। सुपच सुदर्शन ने परमेश्वर कबीर का तत्वज्ञान समझा और उनके वास्तविक रूप के दर्शन किए थे। किन्तु उनके माता पिता ने ज्ञान नही समझा और वे कबीर साहेब को भगवान मानने को तैयार ना हुए। वृद्धावस्था में उनकी मृत्यु होने पर सुपच सुदर्शन ने परमेश्वर कबीर से यह प्रार्थना की कि किसी जन्म में वे उनके माता पिता पर भी दया करें और उनका मोक्ष कराएं। नीरू और नीमा वाली आत्मा पूर्व जन्म में सुपच सुदर्शन के माता-पिता के रूप में थी।
परमेश्वर कबीर पुत्र रूप में नीरू-नीमा के घर
बालक रूप में परमेश्वर कबीर को नीरू नीमा अपने घर ले आए। सारी सृष्टि का रचनहार अपने बालक रूप में इतना सुंदर था कि उसे देखने सम्पूर्ण काशी के लोग आए। नीरू और नीमा के घर मानो मेला सा लग गया। लोगों ने परमेश्वर कबीर को देवताओं का अवतरित रूप बताया। परमेश्वर कबीर की उस मन मोहने वाली छवि की एक झलक पाने स्वर्ग से देवता स्वयं आए थे। परमेश्वर कबीर प्रत्येक युग में आना तत्वज्ञान समझाने के लिए इस मृत्युलोक में आते हैं। अपनी प्यारी आत्माओं के लिए वे ही तत्वदर्शी सन्त बन आते हैं। इस प्रकार एक जुलाहे की लीला करते हुए गूढ़ अनमोल तत्वज्ञान देने परमेश्वर सतलोक से सशरीर अवतरित हुए एवं लीलाएं की। परमेश्वर कबीर के मुंहबोले माता पिता नीरू और नीमा हुए।