दशा माता व्रत (Dasha Mata Vrat) प्रति वर्ष चैत्र मास की कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि को मनाया जाने वाला एक त्योहार है। यह व्रत महिलाएं अपने गृह की शांति और समृद्धि के लिए रखती हैं। आइए जानें इस व्रत से जुड़ी पौराणिक कथा एवं शास्त्रानुसार इसकी पुष्टि।
दशा माता व्रत (Dasha Mata Vrat) के मुख्य बिंदु
- चैत्र मास की कृष्ण पक्ष की दशमी को किया जाता है दशा माता व्रत
- शास्त्रों में नहीं इस व्रत के कोई प्रमाण
- गृहशांति के लिये किया जाता है यह व्रत
- गुरु बिन यज्ञ होम नहीं सधहीं
क्या है दशा माता व्रत?
दशा माता व्रत चैत्र मास की कृष्ण पक्ष की दशमी को किया जाने वाला एक व्रत है। लोकवेद के अनुसार किया जाने वाला यह व्रत यानी केवल एक दूजे को देखकर शुरू किया गया यह व्रत शास्त्रों में कहीं वर्जित नहीं है। ना ही इस व्रत की कोई प्रामाणिकता है और न ही इसका कोई भी लाभ। दशा माता को पार्वती का एक रूप मानकर उसकी पूजा की जाती है। महिलाएं यह व्रत अपनी घर की अच्छी स्थिति के लिए करती हैं। जिस दिन व्रत रहा जाता है, एक समय का आहार किया जाता है और आहार में केवल गेहूं सम्मिलित किया जाता है। महिलाएं पूजा के लिए पीपल के वृक्ष के पास जाती हैं और उसमें लाल रंग का डोरा (धागा) बांधती हैं l इस डोरे की पूजा करने के बाद वे इसे साल भर अपने गले में बांधती हैं।
दशा माता व्रत (Dasha Mata Vrat) की पौराणिक कथा
राजा नल और रानी दमयंती किसी समय सुखपूर्वक राज्य किया करते थे। उनकी दो संतानें थीं। एक बार किसी बुढ़िया ने रानी दमयंती को दशा का लाल डोरा दिया। दासियों के कहने पर रानी ने पहन लिया। एक दिन राजा ने देखा और पूछा इतने गहने होने के बाद आपने यह लाल धागा क्यों पहना है और तोड़कर जमीन में फेक दिया। रानी ने बताया कि यह आपने गलत किया वह दशा माता का था। राजा के सपने में वही बुढिया आई और उसने कहा अब राजा की बुरी दशा शुरू होने वाली है।
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Dasha Mata Vrat: दिन बीतते बीतते राजा के ठाठ बाट, हाथी, घोड़े सब बिक गए और भूखे मरने की नौबत आ गई। तब राजा रानी दूसरे देश को चले। रास्ते में जहां भी रुकते उन्हें विपरीत स्थितियों का सामना करना पड़ता। और इस तरह अंत तक हुआ और जब रानी ने पुनः दशा माता व्रत करने का संकल्प लिया तब जाकर उनका जीवन ठीक होता है। लेकिन वेद और गीता ऐसे किसी भी मनमाने आचरण के विरुद्ध हैं।
क्या व्रत करना वेदों के अनुसार सही है?
वेदों के अनुसार व्रत आदि करने का कोई प्रमाण नहीं मिलता है। श्रीमद्भगवत गीता में व्रत आदि का कोई महत्व नहीं बताया है। गीता के अध्याय 6 के श्लोक 16 में बताया है कि भक्ति योग न तो बहुत खाने वाले का संपन्न होता है और न ही बिलकुल न खाने वाले का, न तो बहुत खाने वाले का और न ही बिलकुल न खाने वाले का सफल होता है। स्पष्ट है कि व्रत के लिए कोई आदेश नहीं है। गीता के अध्याय 16 श्लोक 23 में यह भी उद्धरण है कि शास्त्रों में वर्णित विधि से हटकर मनमाना आचरण करने वाले न तो सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं, ना सुख प्राप्त करते हैं। व्रत करना शास्त्रविरुद्ध आचरण है जिसे करना ना तो सुख देगा और न घर की दशा सुधार सकता है।
सुख संपत्ति प्राप्त करने का आसान तरीका
सुख संपत्ति प्राप्त करने का सबसे आसान तरीका है सत्यभक्ति। लेकिन सत्यभक्ति पूर्ण परमेश्वर की होनी चाहिए। ब्रह्मा विष्णु महेश केवल भाग्य में लिखा ही दे सकते हैं चाहे कोई व्रत रहा जाए या नहीं, चाहे पूजा की जाए अथवा नहीं। गीता के अध्याय 15 के श्लोक 1 से 4 में उल्टे लटके हुए संसार रूपी वृक्ष का चित्रण है। इसमें तत्वदर्शी संत की पहचान भी बताई है। इस रहस्यमई वृक्ष को संत रामपाल जी ही अब तक सही सही समझा पाए हैं।
उन्होंने बताया कि उर्ध्वमूल वाला यानी उल्टा लटका हुआ वृक्ष इस प्रकार है कि जड़ पूर्ण परमेश्वर हैं, तना अक्षर पुरुष और तीन शाखाएँ ब्रह्मा विष्णु और महेश हैं। उसके पत्ते संसार हैं। इसे जानने के बात एक बात स्वतः सिद्ध है कि कोई भी सिद्धि, लाभ, समृद्धि अर्जित करनी है तो जड़ की पूजा साधना करनी होगी ना कि शाखाओं की। पूर्ण तत्वदर्शी संत से नाम लेकर साधना करना फलदाई होता है। इससे ये सभी शक्तियां अपने स्तर का लाभ साधक को स्वयं ही प्रदान करने लगती हैं।
संत रामपाल जी महाराज हैं पूर्ण संत
संत रामपाल जी महाराज वर्तमान में पूर्ण संत हैं। शास्त्रों में पूर्ण संत की पहचान के लिए जो भी लक्षण दिए हुए हैं वे सभी संत रामपाल जी महाराज पर सत्य उतरते हैं। संत रामपाल जी महाराज ने सभी धर्म ग्रंथों के शास्त्रों को खोलकर एक निर्णायक ज्ञान दिया है, एक मोक्ष का मार्ग बताया है और वही तत्वज्ञान है। यह तत्वज्ञान अकाट्य तर्कों के साथ दिया है जिसे आज तक कोई नहीं झुठला पाया। यह ज्ञान पूर्णतः वैज्ञानिक और शास्त्र आधारित है। अधिक जानकारी के लिए डाउनलोड करें संत रामपाल जी महाराज एप्प।