December 6, 2024

आध्यात्मिक ज्ञान चर्चा | अनिरुद्धाचार्य जी बनाम संत रामपाल जी महाराज 

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आध्यात्मिक ज्ञान चर्चा: अनिरुद्धाचार्य जी बनाम संत रामपाल जी महाराज | जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब भगवान स्वयं या अपने परमज्ञानी संत को भेजकर धर्म की पुनः स्थापना करते हैं। संत सभी धर्म ग्रंथों के पूर्ण जानकार होते हैं और उसी के अनुसार ज्ञान प्रसार करते हैं। संत गरीबदास जी महाराज ने कहा है कि पूर्ण संत चारों वेदों, छः शास्त्रों, अठारह पुराणों आदि सभी ग्रंथों का पूर्ण जानकार होता है। वह वेदों के अधूरे वाक्यों को पूरा करके विस्तार से बताता है। वह तीन समय की पूजा भी बताता है। 

सतगुरु के लक्षण कहूं, मधूरे बैन विनोद। 

चार वेद षट शास्त्र, कहै अठारा बोध।।

संतो की दूसरी पहचान यह है कि अज्ञानी धर्म गुरु उनके विरोध में खड़े होकर राजा और प्रजा को गुमराह करके उनके ऊपर अत्याचार करवाते हैं। कबीर साहेब जी ने भी कहा है कि जो संत सत भक्ति मार्ग को बताता है, उसके साथ सभी संत और महंत झगड़ा करते हैं।

जो मम संत सत उपदेश दृढ़ावै (बतावै), वाके संग सभि राड़ बढ़ावै। 

या सब संत महंतन की करणी, धर्मदास मैं तो से वर्णी।।

वर्तमान में अधर्म अपने पैर पसार रहा है अतः हमें ऐसे संत की तलाश करनी चाहिए जो इन लक्षणों को पूरा करता हो और हमें इस भवसागर से पार उतारकर सुख सागर में ले जाए। इस काल खंड में अनिरुद्धाचार्य जी बहुचर्चित हैं। इस लेख में ज्ञान के आधार पर जानने का प्रयास करेंगे कि आचार्य जी और संत रामपाल जी महाराज में कौन असली संत हैं और कौन संत होने का ढोंग कर रहे हैं। 

Table of Contents

अनिरुद्धाचार्य जी मूल मंत्र या वेद मंत्र का उच्चारण बता रहे हैं, “हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे, हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।”  उनके अनुसार भगवान नारायण ही राम और वही कृष्ण, इसलिए इस महामंत्र में दोनों का युगल नाम है। संत रामपाल जी महाराज बताते हैं, गीता जी में ऐसा कोई मंत्र नहीं है। गीता जी अध्याय 8 के श्लोक 13 

ओम् इति एकाक्षरम् ब्रह्म व्याहरन् माम् अनुस्मरन्
यः प्रयाति  त्यजन् देहम् सः याति परमाम्  गतिम्।।8:13।।

इस श्लोक में बताया है कि केवल ॐ एक अक्षर ब्रह्म का मंत्र है। जो अंतिम स्वास तक इसका सुमिरण करता हुआ शरीर छोड़कर जाता है वह ॐ से मिलने वाली परम गति ब्रह्म लोक को प्राप्त होता है। जबकि गीता जी अध्याय 17 के श्लोक 23

ॐ तत् सत् इति निर्देशः ब्रह्मणः त्रिविधः स्मृतः
ब्राह्मणाः तेन वेदाः च यज्ञाः च विहिताः पुरा।।17:23।।

अनिरुद्धाचार्य जी बनाम संत रामपाल जी महाराज | इस श्लोक में ॐ मन्त्र ब्रह्म का, तत् यह सांकेतिक मंत्र परब्रह्म का, सत् यह सांकेतिक मन्त्र पूर्णब्रह्म का है। ऐसे यह तीन प्रकार के पूर्ण परमात्मा के नाम सुमिरण का आदेश कहा है। ॐ तत् सत्  यही पूर्ण मंत्र है जिसे एक तत्वदर्शी संत से दीक्षा ग्रहण करने से मर्यादा में रहकर जपने से इस लोक में सुख और अंत समय में पूर्ण मोक्ष देता है। इस प्रकार अनिरुद्धाचार्य जी शास्त्र विरुद्ध साधना कराकर अपने भक्तों का बहुमूल्य मनुष्य जीवन बर्बाद कर रहे हैं।  

सर्वधर्मान् परित्यज्य माम् एकम् शरणम् व्रज

अहम् त्वा सर्वपापेभ्यः मोक्षयिष्यामि मा शुचः। (गीता 18:66)

अनिरुद्धाचार्य जी गीता 18:66 का भावार्थ इस प्रकार बता रहे हैं, “भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि तू सभी धर्मों को त्यागकर मेरी शरण में आ। यहां ‘सभी धर्मों’ से मतलब लोक धर्मों को छोड़ने से है। अर्जुन को तो युद्ध करना है, लेकिन उसे युद्ध अहंकार में नहीं करना चाहिए। उसे यह सोचकर युद्ध करना चाहिए कि वह सिर्फ अपना कर्म कर रहा है, बाकी कर्मों का फल तो भगवान कृष्ण के हाथ में है।” आगे कहा “युद्ध करो, जीतो या हारो, लेकिन ईश्वर के हाथ में है कि तू जीतेगा या हारेगा, इस पर मत विचार कर।” अनिरुद्धाचार्य जी फिर बताते हैं, “तू सब कुछ छोड़, सिर्फ मेरी शरण में आ, तब श्रीकृष्ण तुझे अपनी शरणागति देगें, तुझे उनकी शरण में आने का हक मिलेगा। तब तू देखेगा कि ‘अहम् त्वा सर्वपापेभ्यो’ – मैं तुझसे सम्पूर्ण पापों का नाश करके तुझे मोक्ष दूंगा, मत सोच, तुझे मोक्ष का अधिकारी बना दूंगा।”

वहीं संत रामपाल जी महाराज ने अनुवाद इस प्रकार किया है:– गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि (सर्वधर्मान्) मेरे स्तर की सर्व धार्मिक क्रियाऐं (माम्) मुझमें (परित्यज्य) त्यागकर तू केवल (एकम्) उस अद्वितीय अर्थात् जिसके समान अन्य कोई परमात्मा नहीं है, उस समर्थ परमेश्वर की (शरणम्) शरण में (व्रज) जा (अहम्) मैं (त्वा) तुझको (सर्व पापेभ्यः) सम्पूर्ण पापों से (मोक्षयिष्यामि) छुड़वा दूँगा यानि मुक्त कर दूँगा। तू (मा, शुचः) शोक मत कर। (18/66)

सभी शब्द कोश भी ‘‘व्रज’’ शब्द का अर्थ “जाना” बता रहे हैं लेकिन तत्वज्ञान के अभाव से अनिरुद्धाचार्य जी ने ‘‘व्रज’’ शब्द का अर्थ आना किया है। अन्य अनेकों संतो ने अनुवाद करते हुए यह गलती की है केवल संत रामपाल जी महाराज ने सही अनुवाद “जाना” किया है।  

अनिरुद्धाचार्य जी बनाम संत रामपाल जी महाराज | अनिरुद्धाचार्य जी के अनुसार इस सृष्टि में तत्व एक ही है, मूल तत्व है भगवान श्री मन नारायण। वही नारायण ही राम है, कृष्ण है, ब्रह्म है, विष्णु है और शिव है। रूप अलग-अलग है, नाम अलग-अलग हैं पर तत्व अलग-अलग नहीं हैं। जैसे तीनों आभूषण हैं लेकिन सब में सोना धातु मूल तत्व एक है। कई लोग कहते हैं नारायण बड़े हैं और शंकर जी छोटे हैं या शंकर जी बड़े हैं  और नारायण छोटे हैं। यह छोटे-बड़े का भेद कभी नहीं रखना चाहिए। जो हरी और हर में, जो शंकर जी और नारायण में अंतर मानता है उसे गऊ हत्या का पाप लगता है। मिठाइयों के स्वाद, रंग और रूप अलग-अलग हो सकते हैं पर शक्कर सब में एक ही है। 

परम संत रामपाल जी महाराज ने गीता अध्याय 15 श्लोक 16-17 को उदघृत करते हुए स्पष्ट ज्ञान दिया है कि तीन प्रभु हैं एक क्षर पुरूष (ब्रह्म) दूसरा अक्षर पुरूष (परब्रह्म) तीसरा परम अक्षर पुरूष (पूर्ण ब्रह्म)। क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष वास्तव में अविनाशी नहीं हैं। वह अविनाशी परमात्मा परम अक्षर पुरुष (पारब्रह्म) तो इन दोनों से अन्य ही है। पवित्र श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 7 श्लोक 4 से 6 श्लोक में ब्रह्म काल व प्रकृति से तीन गुणों के स्वामी रजोगुण ब्रह्मा, सतोगुण विष्णु, और तमोगुण शिव ने जन्म लिया है। अविनाशी परमात्मा पारब्रह्म के अतिरिक्त सभी जन्म मृत्यु के चक्र में हैं।

अनिरुद्धाचार्य जी के अनुसार जिस दिन अभिमान समाप्त हो जाएगा उसी दिन भगवान की प्राप्ति हो जाएगी। इस स्थिति तक जाने का ज्ञान ही ज्ञान है बाकी तो सब अज्ञान है। अभिमान ही आपके बंधन का, आपके दुख का कारण है। इसलिए अभिमान त्याग दो, अभिमान बड़ी बड़ी बातें कराता है। 

अनिरुद्धाचार्य जी बनाम संत रामपाल जी महाराज | संत रामपाल जी महाराज बताते हैं कि गीता अध्याय 4 श्लोक 34 के अनुसार परमात्मा के तत्वज्ञान को जानने वाले तत्वदर्शी संतों के पास जा कर उनसे विनम्रता से पूर्ण परमात्मा का भक्ति मार्ग प्राप्त करना चाहिए। गीता अध्याय 15 श्लोक 1 के अनुसार पूर्ण ज्ञानी अर्थात् तत्वदर्शी संत वह है जो ऊपर को परमात्मा रूपी जड़ वाला, नीचे को तीनों गुण अर्थात् रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु व तमगुण शिव रूपी शाखा वाला अविनाशी विस्तारित पीपल का वृक्ष है, को विस्तार से जानता है। ऐसे संत द्वारा बताई भक्ति विधि से मर्यादा में रहकर भक्ति करने से भगवान की प्राप्ति होती है। पाठक समझ सकते हैं दोनों में कौन शास्त्र सम्मत ज्ञान दे रहे हैं?  

अनिरुद्धाचार्य जी बताते है “माया मरी न मन मरा, मर मर गए शरीर, आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर। “हमारा मन ही मोक्ष का अधिकारी है क्योंकि आत्मा तो मोक्ष से और जन्म मृत्यु सबसे परे है। शरीर बूढ़ा हो गया मन बुड्ढा नहीं हुआ। मन को ही सारा सुख दुख मिलना है।”

तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज बताते हैं कि इस मन की गंदी वृत्ति है। यह काल का दूत है जो चैन से रहने नहीं देता। गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में बताए तत्वदर्शी सन्त की प्राप्ति के पश्चात् तत्वज्ञान रूपी शस्त्र से अज्ञान को काटकर अर्थात् अच्छी तरह ज्ञान समझकर, परमेश्वर के उस परमपद की (सत्यलोक की) खोज करनी चाहिए, जहाँ जाने के पश्चात् साधक फिर लौटकर संसार में कभी नहीं आते अर्थात् उनका जन्म कभी नहीं होता। पूर्ण मोक्ष उसी को कहते हैं। गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में ’’ऊँ तत् सत्’’ मंत्र जाप विधि और मर्यादाएं पूर्ण संत से जानकर भक्ति करने वाला भक्त पूर्ण मोक्ष का अधिकारी होता है। 

अनिरुद्धाचार्य जी के अनुसार भगवान साकार भी है और निराकार भी। श्री राम रूप में ईश्वर साकार हैं और परमात्मा परम ब्रह्म निराकार है। भक्तों के कारण वह परमात्मा निराकार से साकार रूप में प्रकट हो जाता है केवल भक्तों के लिए राम और कृष्ण नृसिंह और वामन बनकर प्रकट हो जाते हैं। भगवान का तीसरा आकार भी है नीर आकार। 

संत रामपाल जी महाराज ने पवित्र गीता जी से प्रमाणित करके बताया है कि परमात्मा साकार है, नर स्वरुप है अर्थात् मनुष्य जैसे आकार का है। गीता अध्याय 7 श्लोक 24-25 में गीता ज्ञान दाता काल ब्रह्म ने अपने आपको अव्यक्त कहा है क्योंकि वह श्री कृष्ण में प्रवेश करके बोल रहा था। गीता अध्याय 8 श्लोक 17 से 19 तक दूसरा अव्यक्त अक्षर पुरुष पर ब्रह्म है। गीता अध्याय 8 श्लोक 20 में कहा है कि इस अव्यक्त अर्थात् अक्षर पुरुष से दूसरा सनातन अव्यक्त परमेश्वर पार ब्रह्म है। इस प्रकार ये तीनों साकार (नराकार) प्रभु हैं। क्षर पुरुष (ब्रह्म) ने प्रतिज्ञा कर रखी है कि मैं कभी भी अपने वास्तविक रुप में किसी को भी दर्शन नहीं दूँगा।

तत्वज्ञान के अभाव में तथा नकली गुरुओं ऋषियों तथा संतों ने अज्ञानता वश अवयक्त का अर्थ निराकार बता कर परमात्मा को निराकार साबित कर दिया जबकि अव्यक्त का अर्थ निराकार नहीं  होता है।

अनिरुद्धाचार्य जी ने बताया कि वो जानवर हैं हम इंसान हैं। हमें दर्द और दया का पता है। जानवर पेट भरने के लिए शिकार करता है। उनमें हमारी तरह समझ नहीं है। ईश्वर ने हमें बुद्धिमान बनाया है। जानवरों को हिंसा करते देख हमें समझ आता है कि हमें दया करनी चाहिए।  

संत रामपाल जी महाराज कहते है कि तिल के समान मात्रा में भी माँस खाकर जो व्यक्ति भक्ति करता है, वह चाहे करोड़ गाय दान भी करता है, उस साधक की साधना व्यर्थ है। उन्होनें यह भी बताया है कि सतयुग में जानवर भी शाकाहारी होते थे, कालांतर में परिवर्तन आया है। 

वास्तविकता में यहां के 21 ब्रह्माण्ड काल ब्रह्म के हैं जिनमे उसकी सत्ता चलती है जिसे उसने तप करके पूर्ण परमेश्वर से प्राप्त किया हैं और हम भी भूल के कारण यहां आ गए। पूर्ण परमात्मा के सतलोक में मांस नही खाया जाता।

अनिरुद्धाचार्य जी ने बताया कि पांच प्रकार के महा पाप होते हैं। उनमें एक महापाप है शराब पीना। शराब का स्पर्श भी वर्जित बताया गया है क्योंकि ये मस्तिष्क पर  प्रभाव डालते है। शराब पीने वाला शून्य हो जाता है वो फिर सारे गलत काम करता है।  

संत रामपाल जी महाराज के अनुसार  मानव जन्म प्राप्त करके जो व्यक्ति शुभ कर्म नहीं करता तो उसका भविष्य नरक बन जाता है। जो नशा करता है, उसका वर्तमान तथा भविष्य दोनों नरक ही होते हैं। नशा इंसानों के लिए नहीं है। यह तो इंसान से राक्षस बनाता है। शराब सेवन करने वाला मनुष्य कैसी भी भक्ति करे वो जीवन मृत्यु के दुष्चक्र में फंसा रहेगा। संत गरीबदास जी की वाणी है –

भांग तम्बाकू छोतरा, आफू और शराब।
गरीबदास कौन करे बंदगी, ये तो करें खराब।।

अनिरुद्धाचार्य जी बताते हैं कि बुरा कर्म करके धन कमाकर यदि आप उसका धर्म करते हैं तो वो धर्म नहीं है। उसका पुण्य उसके खाता में जाएगा जिससे चोरी करके धन अर्जित किया था। उल्टा आपको पाप लगेगा क्योंकि आपने लूट और बेईमानी करके धन कमाया। हमारे शास्त्र कहते हैं धर्म करो दान पुण्य करो तो अपने पसीने की कमाई के धन से। 

अनिरुद्धाचार्य जी बनाम संत रामपाल जी महाराज | संत रामपाल जी महाराज चोरी, भ्रष्टाचार का पूर्ण निषेध करते हैं। बुरे कर्म करने वाला पाप का भागीदार है जिसे मरने के बाद इस ब्रह्मांड के मालिक काल ब्रह्म  के दरबार में सजा मिलती है। सज़ा नरक भुगतने से लेकर नीचे की योनियों में जन्म लेने की होती है। ऐसे धन को कमाने का कोई लाभ नहीं। 

अनिरुद्धाचार्य जी के अनुसार कल्पना में भी किसी स्त्री के बारे में गलत विचार नहीं रखना चाहिए। परंतु आपको पाप नहीं लगेगा जब तक आप किसी को स्पर्श नहीं करते। कलयुग में सोचने से उसका कोई पाप नहीं लगता। सत्ययुग और त्रेतायुग में सोचने से भी पाप लगता है। 

संत रामपाल जी महाराज के अनुसार जो व्यक्ति किसी परस्त्री के साथ दुष्कर्म करता है तो वह सत्तर जन्म अन्धे का जीवन भोगता है। मन, वचन और कर्म तीनों तरह से जीव को पाप और पुण्य दोनों प्राप्त होते हैं। आत्मा के साथ काल के प्रतिनिधि के रूप में एक मन है जो गंदे विचार पैदा करता है। काल ने मन रूप में आत्मा को जकड़ा हुआ है। इसी के साथ एक निजमन है जो चेतावनी देता है और बुरे कार्य करने से रोकता है। मन के मैल को रोका नहीं जा सकता, बल्कि परमात्मा के ज्ञान से और भक्ति के प्रभाव से ही इसे निष्क्रिय कर सकते है। गरीबदास जी बताते है –

जुगन जुगन के दाग हैं ये मन के मैल मुसंड। भाई नहाए से उतरै नहीं अढ़सठ तीर्थ दंड।। 

जुगन जुगन के दाग हैं यह मन के मेल विकार। धोये से नहीं जाते हैं ये गंगा नहाया केदार।। 

अनिरुद्धाचार्य जी ने कहते हैं कि भगवान ने इन्सान को इसलिए बनाया ताकि वह कुछ अच्छा कर पाए। इससे आगे आचार्य को कुछ नहीं सूझता। संत रामपाल जी महाराज बताते हैं, चौरासी लाख योनियों में मनुष्य योनि ही श्रेष्ठ हैं जिसमें जन्म लेकर मानव भक्ति कर अपने मूल स्थान सतलोक वापस जा सकता है जहां जन्म मृत्यु नहीं हैं। परमेश्वर ने मानव को अन्य प्राणियों से भिन्न शरीर दिया है, विशेष बुद्धि दी है और विशेष आहार भी दिया है। इसलिए इसका कार्य भी भिन्न है। कबीर साहेब की वाणी है मनुष्य जन्म में क्या करें-  

कबीर, रामनाम की लूट है, लूटि जाय तो लूट।

पीछै फिर पछताओगे, प्राण जहांगे छूट।।

हमने ऊपर देखा कि अनिरुद्धाचार्य जी मनमुखी ज्ञान को बिना शास्त्रों के प्रमाण के भोले भक्तों पर उड़ेले जा रहे हैं। इसलिए अनिरुद्धाचार्य जी के भक्त किस भी गति को प्राप्त नहीं करेंगे। दूसरी ओर रामपाल जी महाराज पवित्र शास्त्रों के प्रमाण देकर ही अपनी बात करते हैं। वे एकमात्र तत्वदर्शी संत हैं जिन्होंने सतज्ञान दिया है उसके लिए उन्हें चाहे कितनी भी कीमत क्यों नहीं चुकानी पड़ी हो। अनेक साधक संत रामपाल जी महाराज के चरणों में आए और उनसे नाम दीक्षा लेकर अपना कल्याण कराया। सभी अज्ञानी संतो को अपने शिष्यों सहित संत रामपाल जी के श्री चरणों में आ जाना चाहिए और शास्त्र सम्मत साधना सीखकर अपना कल्याण कराना चाहिए। परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि:-

आच्छे दिन पाच्छै गए, गुरू से किया ना हेत।

अब पछतावा क्या करै, जब चिड़िया चुग गई खेत।

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