मैं अपने खेत में काम कर रहा था। ग्रीष्म ऋतु की कड़कती धूप लग रही थी। एक भारी चिंता से आहत खुद को असहाय और बेबस महसूस कर रहा था। मन में चल रहे अंतरद्वंद ने आज शायद मुझे गलत, बहुत गलत करने पर मजबूर कर दिया था । आखिर घर जाकर आज इसी चिंता से तो हमेशा के लिए छुटकारा जो पाना है। कल ही अपनी पत्नी यशोदा के साथ एक योजना तय हुई थी जिसे आज किसी भी हाल में अंजाम देना था! मन में भय भी था की भगवान जाने इस पाप की क्या सजा भोगनी पड़ेगी मुझे।
चूँकि समाधान और सुकून के सारे मार्ग ही समाप्त हो चले किसी से अब कोई उम्मीद नहीं। पूरे वर्ष दिन-रात एक करके मेहनत की थी सोचा अच्छी फसल आयेगी तो सभी का कर्ज चुका दूँगा, लेकिन बदकिस्मती को कुछ और ही मंजूर था, आये दिन कर्ज़ा मांगने आये लोग पूरे परिवार एवं मोहल्ले वालों की उपस्थिति में मुझे ज़लील करके चले जाते थे मैं इस समस्या से उभरा भी नहीं था की सोने पर सुहागा देखो 12 साल की नन्ही सी बेटी बबीता की शादी की चिंता सताये जा रही थी, भले ही उस नन्ही सी जान की शादी में अभी काफी समय बाकी था लेकिन जो हालात वर्तमान में सामने थे बेटी बोझ लग रही थी। बार बार विचार आता की अगर मुझे कर्ज़ से निजात मिल भी जाये लेकिन कुछ वर्षों बाद दहेज रुपी पहाड़ आंखों के सामने आकर खड़ा हो जायेगा तो क्या करुंगा।
कल ही एक पड़ोसी की लड़की का रिश्ता तय हुआ, ससुराल वालों ने दहेज में 5 लाख रुपये मांगे हैं और जमाई को गले में पहनने के लिए सोने की चेन, अगर कल को यही मांग मेरी बेटी के ससुराल वालों ने कर दी तो कहा से लाउंगा यह सब?
इन सब के चलते मेरा दिमाग सिकुड़ गया था, सामने पड़ी समस्या के समाधान को खोजने की बजाय बेटी के बड़े होने और दहेज कैसे दूँगा यह बात मुझे अंदर ही अंदर खाये जा रही थी। पत्नी यशोदा ने भी मुझे कोई सांत्वना इसलिए नहीं दी क्योंकि उसे भी अब 12 साल की बेटी बबीता बोझ लगने लगी थी। लेकिन जो अनर्थ तय हुआ था उसकी कल्पना भी मुझे उद्वीग्न कर रही थी। एकाएक ही मुझमें और मेरी पत्नी में कोई क्रुरता जन्म ले चुकी थी और एक मिली जुली साज़िश तय हो चुकी थी। फिर भी मुझे क्षोभ था की एक माँ और पिता का ह्रदय इतना कमजोर कैसे हो सकता है। लेकिन जीवन में उत्पन्न मजबूरी, दयनीयता, आक्रोश, के चलते दया और मोह को एक तरफ रख चुका था मैं! कुछ भी नज़र नहीं आ रहा था ऐसा लग रहा था कि बबीता की शादी के समय आने वाले दहेज रुपी संकट से क्यों ना आज के आज ही निजात पा लूं।
और मेरे इसी निर्णय में मेरी पत्नी यशोदा सहमत और शामिल थी। दिमाग में चल रही इस उथल-पुथल ने जीवन में आने वाली समस्याओं से मेरी लड़ने की हिम्मत खत्म कर दी, और नकारात्मकता ने मुझे विपरित दिशा में घसीटना शुरु कर दिया था। घर पहुँचा तो हाथ मुंह धोकर पत्नी से कहा,” खाना लगा दो !” पहले से ही परेशान पत्नी तमकते हुए बोली घर में कुछ नहीं है खाने को, कल रात के एक कटोरी बासी चावल थे जिसमें से आधी कटोरी बबीता को खिला चुकी हूँ और बाकी तुम ठुस लो और रहा सवाल मेरा तो मुझे थोड़ा ज़हर ला दो हमेशा के लिए झंझटो से छुट्टी!
यशोदा के तीखे बोल मुझे सूल की तरह चुभ रहे थे, अगले ही पल यशोदा बोली- आज तो आधी कटोरी चावल खा गई कल जब ससुराल वाले दहेज की मांग करेंगे तो मोहल्ले में हमारी इज़्ज़त और हमारी जान भी खा जायेगी।
मैं यशोदा का इशारा समझ चुका था। कल हम दोनों के बीच जो तय हुआ था आज उसे पूरा करना था, आंगन में खेल रही 12 साल की बेटी बबीता पर मेरी नज़र पड़ी तो सोचा आज खत्म कर ही देता हुँ इस बोझ को, अब और नहीं ढो सकते इसे। “चलो बेटी बबीता, मैं अपनी लाडली बेटी को घुमाकर लाता हूँ” यह कहकर मैंने बबीता की उंगली पकड़ी और घर से चल पड़ा, पत्नी यशोदा भी होने वाले अनर्थ को भाप चुकी थी और अगामी घटना के पश्चाताप में मन ही मन बेटी से क्षमा मांगती रही, यशोदा के आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। एक माँ कितनी भी मजबूर या क्रुर हो जाये लेकिन अपनी ममता से खिलवाड़ नहीं कर सकती।
रोती हुई मां को देख बबीता ने पूछा, मां तुम क्यो रो रही हो यशोदा ने बबिता को सीने से लगा लिया। मजबूरी, गुस्से और नकारात्मकता के चंगुल में फंसा मैं सोच रहा था की बेटियां आखिर बोझ ही तो होती हैं अपने माता-पिता पर ! मैंने यशोदा को आवाज़ लगाई तो यशोदा अपनी बेटी बबीता के साथ बाहर आई। मैंने अपने नापाक इरादों के साथ बेटी बबीता का हाथ पकडा़ और चल पड़ा! पूरे रास्ते यही सोचता जा रहा था कि मैं बाप हूं या जल्लाद? बबीता आकाश में उड़ते पंछियों को देख बोली बापू, देखो न, कितने आज़ाद हैं ये कहीं भी उड़ सकते हैं। यह सुन मैंने मन ही मन कहा बेटी आज मैं खुद को भी आज़ाद करने जा रहा हूं “बेटी के बोझ से” बेटी बार-बार यही पूछ रही थी बापू कहाँ लिए जा रहे हो। मुझे नहीं जाना कहीं, घर चलो न”। माँ बहुत रो रही थी मुझे उसके आंसू पोंछने हैं, लेकिन मैं तो निर्दयी बन बैठा था और मेरे पापी मन में तो शैतान घुसा था।
अचानक रास्ते में कुछ लोगों की आवाज़ सुनी, पुस्तक ले लो पुस्तक !
यह पुस्तक पढ़ने के बाद आपको मिलेगी, “जीने की राह” कभी न कर पाओगे कोई पाप। दहेज प्रथा से मिलेगी मुक्ति। यह दहेज देना लेना एक व्यर्थ परंपरा है। बेटी देवी का स्वरूप होती है। ज़रूर पढ़ें पुस्तक “जीने की राह” को!
दहेज का नाम सुनते ही मेरे पूरे शरीर में मानो करंट सा दौड़ गया। मुझे ऐसा लगा मानो भगवान का ही संदेश आया हो। मैं पापी दहेज के डर के कारण ही आज अपनी लाडली को मार देना चाहता हूं!
यकायक मेरे कदम रुके और मैं उस ओर चल पड़ा जहां से “जीने की राह” की आवाज़ आ रही थी। पुस्तक को हाथ में लेने से पहले ही मैंने पूछा क्या वाकई में “मैं दहेज देने से बच सकता हूं?” यह कहते हुए मैंने जैसे ही पुस्तक को हाथ में ले उसे पढ़ना चाहा संयोगवश मैं उसी पृष्ठ पर जा पहुँचा जहाँ लिखा था “बेटियां बोझ नहीं हैं। हम शादी विवाह में दहेज लेकर और देकर बहुत बड़ी समस्याओं से घिर चुके हैं। इसी गलत परंपरा के कारण हमें बेटी बोझ लगने लगी है।हमारी कुपरंपराओं ने बेटी को दुश्मन बना दिया। हमें समाज में फैली इस कुरीति को तुरन्त बन्द करना चाहिए !”
यह लाइनें पढ़कर मैं फूट – फूट कर रोने लगा और भाग कर मैंने अपनी लाडो को गले से लगा लिया और बोला बेटी माफ कर दे मुझे आज मैं बहुत बड़ा पाप करने जा रहा था!
चूँकि की पुस्तक में ना सिर्फ दहेज परंपरा की जानकारी थी बल्कि कर्ज़ से पूर्णत: छुटकारा एवं मनुष्य जीवन के मूल उद्देश्य की जानकारी भी शामिल थी। मैंने पुस्तक देने वाले भाई से पूछा इतने सुंदर विचार लिखने वाले लेखक का क्या नाम है?
वे बोले इस पुस्तक को संत रामपाल जी महाराज जी ने लिखा है। यह पुस्तक अब तक 50 लाख से अधिक लोग पढ़ चुके हैं!
यह सुनकर मुझे आशा की एक नई किरण दिखाई दी तो सोचा की यह आज मै क्या अनर्थ करने जा रहा था?
मैं पुस्तक खरीद कर घर की ओर चल पड़ा। मैं शैतान से इंसान बन चुका था और मन ही मन बोले जा रहा था
“बोलो संत रामपाल जी महाराज की जय हो!”