Last Updated on 13 November 2025 | Birsa Munda Jayanti 2025: देश को आज़ादी दिलाने वाले क्रांतिकारी मतवालों का रौब ही निराला था। अंग्रेजों से देश को आज़ादी दिलाने वाले महापुरुष कई हुए हैं। जिन्होंने देश को आज़ाद कराने के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। ऐसे ही एक महान क्रांतिकारी महापुरुष जिन्हें बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल के आदिवासी लोग आज भी भगवान की तरह पूजते हैं। उनका नाम है, महानायक बिरसा मुंडा (Birsa Munda) जिन्हें देखकर अंग्रेज़ सत्ता थर्राती थी। जिनकी ताकत का लोहा पूरी अंग्रेज़ी हुकूमत मानती थी। आइए ऐसे ही महान जननायक बिरसा मुंडा (Birsa Munda) की जयंती (Birth Anniversary) पर जानें उनके प्रेरणादायक जीवन और संघर्ष से जुड़ा इतिहास।
Birsa Munda Birth Anniversary [Hindi]: मुख्य बिंदु
- महानायक बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को हुआ था।
- क्रांतिकारी बिरसा का अंग्रेजों के खिलाफ नारा था – “रानी का शासन खत्म करो और हमारा साम्राज्य स्थापित करो।”
- जनमानस में धरती आबा के नाम से विख्यात थे बिरसा मुंडा
- उनकी प्रारंभिक शिक्षा मिशनरी स्कूल में हुई।
- उन्होंने अंधविश्वास, शराबखोरी और सामाजिक भेदभाव के खिलाफ जागरूकता फैलाई।
- 9 जून 1900 को उनका निधन हुआ, वे आदिवासी स्वतंत्रता संग्राम के प्रतीक माने जाते हैं।
- तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज जी के सान्निध्य में कलयुग में आ रहा है सतयुग।
Birsa Munda Jayanti 2025: आयोजित होते हैं ऐसे कार्यक्रम
- स्मरणीय कार्यक्रम: बिरसा मुंडा के संघर्ष और योगदान को याद करने के लिए।
- सांस्कृतिक कार्यक्रम: पारंपरिक गीत, नृत्य और नाटकों द्वारा।
- शैक्षिक गतिविधियाँ: छात्रों को बिरसा मुंडा की विरासत के बारे में शिक्षित करना।
- सरकारी पहल: जनजातीय समुदायों के कल्याण के लिए नई योजनाएँ।
- सार्वजनिक सभाएँ: बिरसा मुंडा को श्रद्धांजलि और आदर्शों पर चर्चा।
Birsa Munda Jayanti 2025: बिरसा मुंडा जयंती क्यों मनाई जाती हैं?
मुंडा जनजाति से ताल्लुक रखने वाले बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 को झारखंड के रांची जिले के उलिहतु (Ulihatu) गाँव में हुआ था। मुंडा रीति-रिवाज़ के अनुसार उनका नाम बृहस्पतिवार के दिन के अनुसार बिरसा रखा गया था। 19वीं शताब्दी के इस महान क्रांतिकारी ने अपने देश और आदिवासी समाज के हित में अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर दिया। उनके अदम्य साहस, स्वतंत्रता के प्रति समर्पण और समाज सुधार के कार्यों की स्मृति में ही हर वर्ष बिरसा मुंडा जयंती मनाई जाती है।
उन्होंने ब्रिटिश शासन और सामाजिक शोषण के खिलाफ आदिवासी समुदाय को एकजुट कर स्वाभिमान, स्वतंत्रता और संस्कृति की रक्षा का बिगुल फूंका। बिरसा मुंडा ने न केवल राजनीतिक चेतना जगाई, बल्कि धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पुनर्जागरण का भी नेतृत्व किया।
उनकी जयंती हमें यह प्रेरणा देती है कि सच्चा नायक वही है जो समाज के उत्थान के लिए अन्याय के विरुद्ध खड़ा हो और आने वाली पीढ़ियों को आत्मसम्मान, एकता और संघर्ष की शक्ति का संदेश दे।
भारत सरकार ने 10 नवंबर 2021 को घोषणा की थी कि 15 नवंबर, यानी बिरसा मुंडा जयंती को पूरे देश में “जनजातीय गौरव दिवस” के रूप में मनाया जाएगा, ताकि उनके योगदान को सदैव स्मरण किया जा सके।
बिरसा मुंडा कौन थे?
बिरसा मुंडा भारत के स्वतंत्रता संग्राम के प्रारंभिक और सबसे साहसी जननायकों में से एक थे, जिन्हें आदिवासी समुदाय का वीर योद्धा और भगवान समान सम्मान प्राप्त है। वे मुंडा जनजाति से संबंध रखते थे और 19वीं शताब्दी के दौरान ब्रिटिश शासन के विरुद्ध आदिवासी आंदोलन के प्रमुख नेता बने।
बचपन से ही तेज बुद्धि और नेतृत्व क्षमता वाले बिरसा ने समाज में फैली कुरीतियों और अन्याय को समझा और उसके खिलाफ आवाज उठाई। उन्होंने आदिवासी समाज को धार्मिक अंधविश्वासों से मुक्त कर एक नई सामाजिक चेतना प्रदान की। उन्होंने “उलगुलान” अर्थात् महान क्रांति का नेतृत्व किया, जिसका उद्देश्य था— ब्रिटिश शासन से मुक्ति और आदिवासियों के अधिकारों की पुनःस्थापना।
उनकी प्रेरणा से जनजातीय समाज एकजुट हुआ और स्वाभिमान के साथ अपने हक की लड़ाई लड़ी। बिरसा मुंडा का जीवन संघर्ष, बलिदान और आत्मसम्मान का प्रतीक है। उन्होंने यह साबित किया कि सीमित संसाधनों के बावजूद भी यदि मन में दृढ़ निश्चय हो तो किसी भी अन्याय के विरुद्ध बड़ा परिवर्तन लाया जा सकता है।
परिवार और शिक्षा (Family & Education)
महान क्रांतिकारी महापुरुष जिन्हें लोग ‘धरती आबा ‘ के नाम से समोधित करते हैं। उनका जन्म 15 नवंबर 1875 को झारखण्ड रांची ज़िले में हुआ। इनके पिता का नाम श्री सुगना मुंडा और माता का नाम करमी हटू था। बिरसा मुंडा के परिवार में उनके बड़े चाचा कानू पौलुस और भाई थे जो ईसाई धर्म स्वीकार कर चुके थे। उनके पिता भी ईसाई धर्म के प्रचारक बन गए थे। उनका परिवार रोजगार की तलाश में उनके जन्म के बाद उलिहतु से कुरुमब्दा आकर बस गया जहा वो खेतो में काम करके अपना जीवन व्यतीत करने लगे। उसके बाद काम की तलाश में उनका परिवार बम्बा नाम के शहर में चला गया। बिरसा का परिवार वैसे तो घुमक्कड़ जीवन व्यतीत करता था लेकिन उनका अधिकांश बचपन चल्कड़ में बीता था।
यह भी पढ़ें: बाल दिवस (Children’s Day) पर जानिए कैसे मिलेगी बच्चों को सही जीने की राह?
गरीबी के दौर में बिरसा को उनके मामा के गाँव अयुभातु भेज दिया गया। अयुभातु में बिरसा ने दो साल तक शिक्षा प्राप्त की। पढ़ाई में बहुत होशियार होने से स्कूल चालक जयपाल नाग ने उन्हें जर्मन मिशन स्कूल में दाखिला लेने को कहा। अब उस समय क्रिस्चियन स्कूल में प्रवेश लेने के लिए ईसाई धर्म अपनाना जरुरी ही था तो बिरसा ने धर्म परिवर्तन कर अपना नाम बिरसा डेविड रख लिया जो बाद में बिरसा दाउद हो गया था।
Birsa Munda Jayanti [Hindi]: वर्तमान में बिरसा मुंडा का समाज में स्थान
धरती आबा बिरसा मुंडा आदिवासी समुदाय के भगवान कहे जाते हैं। मुण्डा भारत की एक छोटी जनजाति है जो मुख्य रूप से झारखण्ड के छोटा नागपुर क्षेत्र में निवास करती है। झारखण्ड के अलावा ये बिहार, पश्चिम बंगाल, ओड़िसा आदि भारतीय राज्यों में भी रहते हैं जो मुण्डारी आस्ट्रो-एशियाटिक भाषा बोलते हैं।
बिरसा मुंडा का इतिहास (History of Birsa Munda)
कालान्तर में यह अंग्रेजी शासन फैल कर उन दुर्गम हिस्सों में भी पहुंच गया जहाँ के निवासी इस प्रकार की सभ्यता-संस्कृति और परम्परा से नितान्त अपरिचित थे। आदिवासियों के मध्य ब्रिटिश शासकों ने उनके सरदारों को जमींदार घोषित कर उनके ऊपर मालगुजारी का बोझ लादना प्रारंभ कर दिया था। इसके अलावा समूचे आदिवासी क्षेत्र में महाजनों, व्यापारियों और लगान वसूलने वालों का एक ऐसा काफ़िला घुसा दिया जो अपने चरित्र से ही ब्रिटिश सत्ता की दलाली करता था।
ऐसे बिचौलिए जिन्हें मुंडा दिकू (डाकू) कहते थे, ब्रिटिश तन्त्र के सहयोग से मुंडा आदिवासियों की सामूहिक खेती को तहस-नहस करने लगे और तेजी से उनकी जमीनें हड़पने लगे थे। वे तमाम कानूनी गैर कानूनी शिकंजों में मुंडाओं को उलझाते हुए, उनके भोलेपन का लाभ उठाकर उन्हें गुलामों जैसी स्थिति में पहुँचाने में सफल होने लगे थे। हालांकि मुंडा सरदार इस स्थिति के विरुद्ध लगातार 30 वर्षों तक संघर्ष करते रहे किन्तु 1875 के दशक में जन्मे महानायक बिरसा मुंडा ने इस संघर्ष को नई ऊंचाई प्रदान की।
Birsa Munda Jayanti Hindi: बिरसा मुंडा का अन्याय के विरूद्ध संघर्ष
भारतीय जमींदारों और जागीरदारों तथा ब्रिटिश शासकों के शोषण की भट्टी में आदिवासी समाज झुलस रहा था। मुंडा लोगों के गिरे हुए जीवन स्तर से खिन्न बिरसा सदैव ही उनके उत्थान और गरिमापूर्ण जीवन के लिए चिन्तित रहा करता था। 1895 में बिरसा मुंडा ने घोषित कर दिया कि उसे भगवान ने धरती पर नेक कार्य करने के लिए भेजा है। ताकि वह अत्याचारियों के विरुद्ध संघर्ष कर मुंडाओं को उनके जंगल-जमीन वापस कराए तथा एक बार छोटा नागपुर के सभी परगनों पर मुंडा राज कायम करे।
बिरसा मुंडा के इस आह्वान पर समूचे इलाके के आदिवासी उन्हे भगवान मानकर देखने के लिए आने लगे। बिरसा आदिवासी गांवों में घुम-घूम कर धार्मिक-राजनैतिक प्रवचन देते हुए मुण्डाओं का राजनैतिक सैनिक संगठन खड़ा करने में सफल हुए। बिरसा मुण्डा ने ब्रिटिश नौकरशाही की प्रवृत्ति और औचक्क आक्रमण का करारा जवाब देने के लिए एक आन्दोलन की नींव डाली।
ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ बिरसा का आंदोलन
1895 में बिरसा ने अंग्रेजों की लागू की गई जमींदार प्रथा और राजस्व व्यवस्था के साथ जंगल जमीन की लड़ाई छेड़ दी। उन्होंने सूदखोर महाजनों के खिलाफ़ भी जंग का ऐलान किया। यह एक विद्रोह ही नही था बल्कि अस्मिता और संस्कृति को बचाने की लड़ाई भी थी। बिरसा ने अंग्रेजों के खिलाफ़ हथियार इसलिए उठाया क्योंकि आदिवासी दोनों तरफ़ से पिस गए थे। एक तरफ़ अभाव व गरीबी थी तो दूसरी तरफ इंडियन फॉरेस्ट एक्ट 1882 जिसके कारण जंगल के दावेदार ही जंगल से बेदखल किए जा रहे थे। बिरसा ने इसके लिए सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक तौर पर विरोध शुरु किया और छापेमार लड़ाई की।
Birsa Munda Jayanti [Hindi]: 1 अक्टूबर 1894 को बिरसा ने अंग्रेजों के खिलाफ़ आंदोलन किया। बिरसा मुंडा सही मायने में पराक्रम और सामाजिक जागरण के धरातल पर तत्कालीन युग के एकलव्य थे। ब्रिटिश हुकूमत ने इसे खतरे का संकेत समझकर बिरसा मुंडा को गिरफ्तार करके 1895 में हजारीबाग केंद्रीय कारागार में दो साल के लिए डाल दिया।
बिरसा ने अंग्रेजों के खिलाफ़ डोंबारी में लड़ी अंतिम लड़ाई (Birsa Munda Death)
कम उम्र में ही बिरसा मुंडा ने अंग्रेज़ों के खिलाफ संघर्ष का बिगुल बजा दिया था। उनका यह आंदोलन 1897 से 1900 के बीच तेज़ी से चला और पूरे आदिवासी क्षेत्र में ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह की लहर फैल गई।
जनवरी 1900 में जब बिरसा मुंडा अपने अनुयायियों के साथ डोंबारी पहाड़ (डोंबारी बुरू) पर अंग्रेज़ों के खिलाफ अगली रणनीति बना रहे थे, तभी ब्रिटिश सेना ने अचानक वहाँ हमला कर दिया। अंग्रेज़ों ने निहत्थे आदिवासियों पर अंधाधुंध गोलियाँ बरसाईं, जिसमें सैकड़ों पुरुष, महिलाएँ और बच्चे शहीद हो गए।
यह घटना आज भी उस निर्दयता और अन्याय की प्रतीक है, जिसके विरुद्ध बिरसा मुंडा ने अपना जीवन समर्पित किया था।
Birsa Munda Death [Hindi]: बिरसा मुंडा की मृत्यु
बिरसा मुंडा के नेतृत्व में चले “उलगुलान आंदोलन” ने ब्रिटिश शासन को हिला कर रख दिया था। उनकी बढ़ती लोकप्रियता और जनसमर्थन से डरकर अंग्रेज़ों ने उन्हें 3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर के निकट के जमकोपाई जंगल से गिरफ्तार कर लिया। गिरफ्तारी के बाद उन्हें रांची जेल में कैद किया गया, जहाँ उन्होंने अत्यंत कठिन परिस्थितियों का सामना किया।
9 जून 1900 को मात्र 25 वर्ष की आयु में बिरसा मुंडा का निधन हो गया। ब्रिटिश अधिकारियों ने यह दावा किया कि उनकी मृत्यु हैजा (कॉलरा Cholera) से हुई, लेकिन ऐतिहासिक साक्ष्य और स्थानीय जनमान्यताएँ बताती हैं कि उन्हें जेल में यातनाएँ देकर मार दिया गया था।
उनकी असामयिक मृत्यु ने पूरे देश में शोक और आक्रोश की लहर फैला दी। यद्यपि उनका जीवन छोटा था, लेकिन उनके विचार और संघर्ष आज भी लाखों लोगों को प्रेरित करते हैं। बिरसा मुंडा ने यह सिद्ध किया कि सच्चा बलिदान वही है जो समाज की स्वतंत्रता और सम्मान के लिए दिया जाए।
तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज जी के सान्निध्य में कलयुग में लौट रहा है सतयुग
भारत के इतिहास में बिरसा मुंडा का नाम एक ऐसे वीर के रूप में अमर है जिसने अपने समाज को अन्याय और अत्याचार से मुक्त कराने के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। उन्होंने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध “उलगुलान” अर्थात् महान आंदोलन चलाकर आदिवासी समाज में स्वाभिमान और एकता की ज्योति जलाई। बिरसा मुंडा का जीवन केवल संघर्ष की कहानी नहीं, बल्कि समाज में न्याय, समानता और आत्मसम्मान की पुकार था। उन्होंने यह सिद्ध किया कि सच्चा धर्म वही है जो मनुष्य को अत्याचार के विरुद्ध खड़ा होने की प्रेरणा दे।
आज उसी भावना को तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज जी नए स्वरूप में जीवित कर रहे हैं। जहाँ बिरसा मुंडा ने भौतिक अन्याय के विरुद्ध संघर्ष किया था, वहीं संत रामपाल जी महाराज जी आध्यात्मिक अंधकार और अधर्म के विरुद्ध आंदोलन चला रहे हैं। वे समाज को यह ज्ञान दे रहे हैं कि वास्तविक आज़ादी केवल राजनीतिक या भौतिक नहीं, बल्कि आत्मिक होनी चाहिए। जब मनुष्य पाप, नशा, हिंसा और अज्ञान से मुक्त होकर परमात्मा की शरण में आता है, तभी वह सच में स्वतंत्र कहलाता है।
संत रामपाल जी महाराज जी ने समाज को शास्त्र-सम्मत भक्ति का मार्ग दिखाया है, जो सभी धार्मिक ग्रंथों में वर्णित है। वे आध्यात्मिक ज्ञान देते हैं कि पूर्ण परमात्मा वही हैं जिन्होंने सृष्टि की रचना की और वे हैं कबीर साहेब जी। उनके बताए अनुसार सतनाम और सारनाम की भक्ति करने से आज लाखों लोग अपने जीवन से दुख, रोग और कलह को मिटा चुके हैं। यही वह परिवर्तन है जो धीरे-धीरे कलयुग को सतयुग में बदल रहा है।
जैसे बिरसा मुंडा ने आदिवासी समाज को जाति-पात, अत्याचार और धार्मिक अंधविश्वासों से मुक्त किया, वैसे ही संत रामपाल जी महाराज जी भी लोगों को पाखंड, मूर्तिपूजा और हिंसा से दूर कर एकता, प्रेम और भक्ति का मार्ग दिखा रहे हैं। उनके आश्रमों में हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सभी समान भाव से भक्ति करते हैं, यह दृश्य आधुनिक भारत में सतयुग जैसे समरस समाज का प्रतीक है।
जहाँ पहले युद्ध तलवारों से लड़े जाते थे, आज युद्ध अज्ञान और अधर्म के विरुद्ध ज्ञान और भक्ति के माध्यम से लड़ा जा रहा है। यही आज का “आध्यात्मिक उलगुलान” है, जिसमें हथियार नहीं, बल्कि सत्य और प्रेम की शक्ति है। संत रामपाल जी महाराज जी के सान्निध्य में नशा-मुक्त, हिंसा-मुक्त और अन्याय-मुक्त समाज का निर्माण हो रहा है, जो बिरसा मुंडा के स्वप्न और सतयुग के आदर्शों जैसे सत्य, शांति, समानता और भक्ति को साकार कर रहा है।
इसलिए आज यह कहा जाना उचित है —
“बिरसा मुंडा ने जिस स्वाभिमान की ज्योति जलायी थी, उसे तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज जी ने सत्यज्ञान और भक्ति की दिव्य रोशनी से प्रज्वलित कर दिया है। उनके सान्निध्य में कलयुग में फिर से लौट रहा है सतयुग।”
‘कलयुग में सतयुग’ के बारे में जानने के लिए देखें हमारी खास वीडियो part 1,2,3 on SA News Youtube Channel पर।
FAQs: Birsa Munda Jayanti 2025 [Hindi]
Ans:- बिरसा मुंडा 19वीं शताब्दी के महान स्वतंत्रता सेनानी और समाज सुधारक थे, जिन्होंने ब्रिटिश शासन और शोषण के खिलाफ आदिवासी समाज को एकजुट किया।
Ans:- उनका जन्म 15 नवंबर 1875 को झारखंड के रांची जिले के उलिहतु गाँव में हुआ था।
उन्हें ‘धरती आबा’ यानी ‘धरती पिता’ इसलिए कहा जाता है क्योंकि उन्होंने आदिवासियों के भूमि अधिकार और स्वाभिमान की रक्षा के लिए संघर्ष किया।
उनका निधन 9 जून 1900 को रांची जेल में रहस्यमय परिस्थितियों में हुआ था।
वर्ष 1900 में 25 वर्ष की आयु में क्रान्तिकारी बिरसा मुंडा का निधन रांची झारखंड की जेल में हुआ था।



